कविता

विसर्जन

विसर्जन हम करते है
उन देवी देवताओं का
जिनको हम बड़ी श्रद्धा से
विशेष अवसरों पर
कई दिनों तक पूजते हैं,
नमन,वंदन, अभिनंदन करते हैं
कथा, कीर्तन, जागरण करते/कराते हैं
चौकियां सजाते हैं।
फिर बड़ी ही श्रद्धा भाव से
तालाबों, पोखरों ,नदियों में
नाचते गाते विसर्जित कर आते हैं
पर यह विडंबना नहीं है
तो आखिर क्या है?
विसर्जन का आशय हमें
समझ तक नहीं आते हैं
बस हम भेड़चाल में बहते जाते हैं।
अरे! जहीन, समझदार प्राणियों
विसर्जन की इस परंपरा से कुछ सीखो
कम से कम अपनी एक बुराई भी
मूर्तियों के साथ विसर्जित तो करो
अन्याय के विरोध का संकल्प करो
किसी गरीब की भलाई का
उत्तरदायित्व तो लो,
बहन बेटियों के हिफाजत की
तनिक प्रतिज्ञा भी तो लो
इंसानियत के झंडाबरदार बनो न बनो
पहले इंसान तो बनो।
देवी देवताओं की आड़ में भी
क्या कुछ नहीं होते है,
ऐसे में पूजा पाठ विसर्जन के
कौन से फल मिलते हैं।
आडंबर करने की जरूरत क्या है?
बड़े भक्त हो बताने की
इतनी आफत क्यों है?
देवी देवताओं का जब
मान रख ही नहीं सकते,
तब देवी देवताओं को पूजकर
विसर्जन की जरुरत क्या है?
बहुरुपिया आवरण ओढ़कर
बड़ा भक्त दिखने/दिखाने की
भला जरूरत क्या है?

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921

One thought on “विसर्जन

  • *गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    आप से सौ फी सदी सहमत हूँ जी .

Comments are closed.