हमारी रसिकता रीत न जाए
मन्दिर में बड़ का वृक्ष
वृक्ष पर बैठा था तोतों का एक जोड़ा
जोड़ा मन से तो जवान था
तन से भले ही अधेड़ था थोड़ा-थोड़ा
तोता तोती से चोंच लड़ाने को था आतुर
तोती थी ज़माने की व्यथा से व्याकुल
बोली, “तुझको चोंच लड़ाने की पड़ी है
इधर सारा संसार है भ्रष्टाचार से व्याकुल
मन्दिर हो या पार्क
उजाला हो या अन्धेरे का हो राज
चारों ओर चर्चे हैं भ्रष्टाचार के
अनशन और सत्याग्रह का हो गया है आगाज़
कोई अनशन करने वालों को
कह रहा है ठगों का जुड़ा है मेला
अनशन वाले कह रहे हैं
इनके चक्कर में मत आओ
ये तो साफ-साफ है भ्रष्टाचार को
दबाने का झमेला
इतनी तपती लू में अनशन पर
बैठे हैं भूखे-प्यासे लोग
कहने वाले कह रहे हैं
ये सब तो है दिखावे का ढोंग.”
तोता बोला, “माना है ये प्रजातंत्र
सभी कुछ भी कहने को हैं स्वतंत्र
पर, सभी लोग अपने मतलब की
बात बोलते हैं
घड़ी भर में फिर करते हैं चाटुकारिता
भुला देते हैं की हुई निन्दा
जहां काम बनना हो, सोचने लगते हैं
चूल्हे में जाएं अनशन करने वाले
भाड़ में जाए ये प्रजातंत्र
मुझे तो डर है प्रदूषण का
इन हरे-भरे वृक्षों का
जहां होता है हमारा बसेरा
एक तो डर है निरंतर
इनके कटते जाने का
ऊपर से लोभ-लालच के कारण
रासायनिक और ज़हरीली खाद डालकर
जल्दी-से-जल्दी फल-सब्ज़ियां बढ़ाने का
और ज़्यादा-से-ज़्यादा कमाने का
एक दिन हमें सांस लेने में भी
परेशानी उठानी पड़ेगी
दूसरे हमें किसी डॉक्टर की
मदद भी तो नहीं मिलेगी.”
फिर बोला, “छोड़ो इन बेकार की बातों को
होने दो रसीली अपनी मुलाकातों को
ये झमेले तो यों ही चलते रहेंगे
नेता लोग तो यह कहकर
पल्ला झाड़ देंगे कि
हमने देखा है
हम देख रहे हैं
और देखते रहेंगे
बातों-बातों में ये सुहाना समा
यों ही बीत न जाए
कहीं
हमारी रसिकता रीत न जाए,
हमारी रसिकता रीत न जाए,
हमारी रसिकता रीत न जाए”.