कविता

इतना आसान नहीं

इतना आसान नहीं मंजिल को पाना
इतना आसान नहीं दिल की ही सुनना
खटकने लगे हैं नयनों में सबके
जबसे सुना है मन की ही खुद की
अंधेरों में खोकर जब तक थे जिये
झूठे सभी तारीफ ही करते
पर जख्मों को वे नासुर बनाते
तब माना झूठे ये नाते
अच्छाई का स्वांग मैं रच ना पाई
सच्चाई में खुद को तन्हा मैं पाई
पर खुश हुं ये सोच कर कि मैं
झूठे सभी मुझसे है रूठे
करती हुं शुक्रिया दाता मैं तुमकों
ढोंगियों को रखना तू दूर
वरना छलती रह जाऊंगी खुद को ही
मंजिल से भटक हो जाऊंगी कोसों दूर।
मद-मस्त जीवन में खोना मैं चाहुं
वयर्थ की बातों से खुद को दूर ले जाऊं
ऊंचे आंसमान में उड़
जीवन को सार्थकता दे जाऊं।

— प्रियंका पेड़ीवाल अग्रवाल

प्रियंका पेड़ीवाल अग्रवाल

विराटनगर-नेपाल