ग़ज़ल
जिनको पहले देश में रहने से डर लगने लगा
अब तो उनको भारत ही अपना घर लगने लगा
जो घुसे थे चोरों की तरह घुप अंधेरी रात में
उनको अब कागज दिखाना भी क़हर लगने लगा
कश्मीर से हिन्दू भगाने से था जो बेख़बर
वही रोहिंग्या के ग़म से बाखबर लगने लगा
रोते रहते थे जो पहले बिजली पानी के लिए
बुनियादी विकास भी उनको बेअसर लगने लगा
जिनको पहले कोरोना से जान के लाले पड़े
मुफ़्त का टीका भी उनको ज़ोर-जबर लगने लगा
जो था कभी पिछड़ा हुआ यह देश सत्तर साल से
“अंजान” को अपना वतन विकसित नज़र लगने लगा।
— डॉ विजय कुमार सिंघल “अंजान”