लघुकथा – गिद्ध
बैंक की सीढ़ियां उतरा ही था कि उन चारों ने सुदामा को घेर लिया था, जमीन पर मरा हुआ जानवर को जैसे गिद्ध घेर लेते हैं। फर्क सिर्फ इतना था । गिदध मरे हुए जानवरों को खाते हैं और ये चारों जिंदा लोगों की बोटी बोटी नोच कर खाते हैं । सब अपना अपना महीने भर का हिसाब लिए खडा था। सबसे जल्दी मे दारूवाला था,उसी ने पहले अपना मुंह खोला और बोला-” सुदामा,फटाफट मेरा डेढ़ हजार निकाल, तुम्हारा कमीना साथी करमचंद को भी पकड़ना है ,स्याला फिर कहीं भाग न जाए”
” कल तो बारह सौ ही बताया था…।”
” और बाद में करमचंदवा के साथ दो बोतल पी गया था,उसका कौन देगा तुम्हारा बेटा.. पीने के बाद तुमको होश रहता ही कहां है..ला..।”
“ मैं नहीं,वो करमचंद बोला था-वो देगा…..।“
“तुम बोला था -तुम दोगे ..।“ और दारूवाले ने सुदामा का कालर पकड़ लिया-“ चल जल्दी निकाल….।“
सुदामा सहम गया। उसने तत्काल उसे डेढ़ हजार देकर चलता किया तो सूद वाला तन कर सामने खड़ा हो गया-” सुदामा, मेरा भी जल्दी से चुकता कर दो-पांच हजार बनता है ।”
“ पांच हजार कैसे ?तीन हजार मूल और एक हजार सूद-चारे हजार न हुआ ..?”
” आर पिछले महीने समधी के आने पर दो हजार और लिया था उसका मूल आर सूद कौन देगा.तुम्हारा बाप ..?”
सुदामा सूद वाला से भी न बच सका ।वो पूरे पांच हजार ले चलता बना ।
मीट और राशन दुकान वाले कब तक पीछे खड़े बगुले की तरह देखते रहते एक साथ दोनों सामने आ गये
” तीन हजार मेरा..भी निकाल दो सुदामा भाई ।” मीट वाला बोला
इस बार सुदामा ने कोई आना कानी नहीं की । चुप चाप तीन हजार दे दिया फिर बोला-” अभी आ रहा हूं.. गुरदा-कलेजी रख देना…।”
” मेरे खाते में छह हजार चार सौ चालीस रूपए है-इस बार पूरा लूंगा..।” राशन वाले सेठ ने लाठी ठोकते हुए सा कहा
” इस बार डेढ़ हजार कैसे बढ़ गया सेठ जी..?” सुदामा कुनमुनाया था
” समधी -समधीन आई थी तब दो दिन उन लोगों को शिकार-भात खिलाया था,भूला गया ?तेल -मशाला किस भाव बिकता है मालूम है तुमको..?” सेठ का तेवर कम नहीं हुआ-” खाने के समय ठूंस ठूंस कर खाओगे और देने के समय खीच -खीच -पूरा दो नहीं तो आज से उधार बंद..।”
” सेठ जी चार हजार ले लो-अगले महीने पूरा दे दूंगा…।” सुदामा ने मिन्नत किया ” बड़ी बेटी को सलवर कुरती खरीद देनी है.. काफी पुराना हो गया है,-फटने भी लगा है..!”
” मुझे कुछ नहीं सुनना है, छः हजार चाहिए तो चाहिए ही, नहीं तो उधार बंद…।” सेठ सीधे सीधे धमकी पर उतर आया था ।
सेठ को न देने का मतलब घर का राशन पानी बंद !
रोने और पैर पकड़ने पर भी सेठ का पत्थर कलेजा पिघलने वाला नहीं था,यह बात सुदामा भली-भांति जानता था । देने में ही भलाई था ।
चला तो हाथ में मात्र डेढ़ हजार रूपए था । आधा तनख्वाह पहले ही नागा में कट गया था और आधा आदमखोरों ने ले लिया । अब किस मुंह को लेकर घर जाए । बार बार उसकी आंखों के सामने बड़ी बेटी सरिता का पुराना सलवर कमीज और छाती के बढ़ते आकार घूमने लगा था। देर रात वह घर पहुंचा। बच्चे सो चुके थे और पत्नी जाग रही थी। सालों बाद सुदामा कलेजी-गरदा लिए बगैर घर पहुंचा था ।
— श्यामल बिहारी महतो