प्रीति की रीति से भाव बहने लगे
लेखनी जो उठे पीर भी लिख सके,
घाव जो हैं हरे वे न रिसने लगे।
प्रेम भी लिख सके,नेह की लोर से,
प्रीति की रीति से भाव बहने लगे।
क्रांति भी लिख सके,न्याय की आस में,
ओज की चाह में,जोश भरने लगे।
लाख बाधा मिले राह में जो अगर,
पार कर लें अगर साथ चलने लगे।
नेह भी लिख सके जो पराए हुए,
साथ उनके चले वो सवरने लगे।
रूप की आंच से जो उजाला करे,
धूप उनके लिए,सच उगलने लगे।
आइना भी दिखाए,लिखें इस तरह,
साफ होकर नज़ारा चमकने लगे।
आदमी,आदमी बन सके प्रेम से,
बस इसी आश में हम चहकने लगे।
— अनुपम चतुर्वेदी
बस इसी आश में हम चहकने लगे।
— अनुपम चतुर्वेदी