लघुकथा

कशमकश

“आंटी ये लो प्रसाद”अनिता ने पीछे मुड़ कर देखा तो दरवाजे से अभी अंदर आयी थी मीरा..
मीरा अनिता के घर मे पिछले सात आठ महीने से काम कर रही थी। आज पहली बार उसने मीरा को इतनी सजी धजी और खुश देखा था। रंग बिरंगी कढ़ाई वाली साड़ी, बड़े से झुमके ,हाथ मे भरी भरी चूड़ियां, वो तो एक दम से पहचान ही नही पायी कि ये वो ही मीरा है जो रोज उसके घर काम करने आती है।
कोठी वाली बीबियों से मिले पुराने कपड़े ही नहा कर पहन ले इससे ज्यादा टाइम कहाँ होता है इनके पास । रोज पहले घर के सब काम निपटा कर फिर पांच पांच कोठियों में भाग भाग कर काम करना।इसी भागदौड़ में तो पूरा दिन निकल जाता था मीरा का भी। लेकिन पिछले आठ दस दिन से मीरा कुछ ज्यादा ही उत्साहित नजर आ रही थी। एक दिन उसने अनिता को बताया कि उनका त्योहार आ रहा है छठ पूजा ।
अनिता ने इस से पहले अपने देखने मे किसी को ये त्योहार मनाते हुए नही देखा था। पहली बार मीरा उसके घर लगी थी जो बिहार से थी। दीपावली के दिन भी अनिता को लगा था कि आज ये अवश्य काम करने नही आएगी लेकिन उसने बोला कि आज तो मैं आऊंगी जब हमारा त्योहार होगा तब छुट्टी दे देना और थोड़े पैसे भी एडवांस में देना।
तीन दिन खूब तैयारियां हुई, मिठाईयां बनी , नए कपड़े आये। बहुत ज्यादा उत्साहित थी वो अपने त्योहार को लेकर। और आज जब सुबह के अर्घ्य और पूजन के साथ त्योहार की समाप्ति हुई थी तो मीरा एक बड़े से लिफाफे में छठ पूजा का प्रसाद जिसमे फल और उसके घर की बनी मिठाईयां थी,अनिता के घर लेकर आई थी।
अनिता कशमकश में थी कि क्या करूँ प्रसाद रखूं कि नही रखूं। क्योंकि हमेशां जरूरतमंदों को इन हाथों से देना ही सीखा है और कोशिश की है कि जितना हो सके उनकी मदद करूँ। लेकिन वो प्रसाद को वापिस करके उसकी भावनाओं को भी ठेस नही पहुंचाना चाहती थी इसलिए कुछ पल के लिए दुविधा में पड़ गयी कि क्या करूँ।
“आंटी ये लो प्रसाद रख लो” मीरा  ने जब दोबारा कहा तो अनिता ने मीरा के सामने ही एक केला और थोड़ी सी मिठाई प्लेट में निकाली और बोली,
“देखो मीरा मेरे घर में इतना प्रसाद कोई खाने वाला तो है नही ।तुम्हारे  घर तो छोटे बच्चे हैं खाने वाले। इसलिए ये देखो मैंने थोड़ा सा ले लिया है। प्रसाद तो प्रसाद होता है चाहे थोड़ा सा ही हो ये देखो मैं तो अभी खाने लगी,” ये कहते हुए अनिता ने उसी समय थोड़ी सी मिठाई ले कर अपने मुँह में रख ली। और मीरा ये देख कर खुशी खुशी बाकी का लिफाफा लेकर चली गयी।
— रीटा मक्कड़