गीतिका/ग़ज़ल

गीतिका

उनके जाने से दिल तन्हा तन्हा हो गया।
मन मन्दिर ये फिर से रूसवा हो गया।।
शाम तलक बैठा वो मेरी महफिल में।
खुली खिड़की से जाने कब जुदा हो गया।।
रात आयी फिर ख्यालों ने पुकारा मुझको।
फिर तो नींद का आँखों से गिला हो गया।।
फड़फड़ाते परिंदों की तड़प देखकर।
होश मेरा भी जैसे फाख्ता हो गया।।
शिकार हुई बुलबुल जो उसके हाथों।
फिर तो रोज का सिलसिला हो गया।।
कौन पूछता है दर्द यहाँ गमजदा का।
तन्हाई में सिसकियों का शोर हवा हो गया।।
सांय सांय कर रही थी वो भरी बज्म।
जर्रा जर्रा इन्साँ से खफा हो गया।।
कहाँ से शुरू हुई कहानी कहाँ खत्म हुई ।
तस्वीर का तकदीर से रिश्ता हो गया।।
सियासत का खेल तो देखो यारों।
चवन्नी का रुपये में तबादला हो गया।।
— प्रीती श्रीवास्तव

प्रीती श्रीवास्तव

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