कहानी – मेरे उस्ताद पण्ड़ित विष्णु कालिया
मेरे साहित्यिक उस्ताद थे पण्ड़ित विष्णु कालिया जी। पतला दुबला लम्बे कद काठ का शरीर। गोरा रंग। मधुर संवेदना व्यक्तित्त्व। हिन्दी, पंजाबी, ऊर्दू, फार्सी तथा अंग्रेजी के विद्वान-साहित्कार। हिन्दी, पंजाबी तथा ऊर्दू के प्रतिष्ठित शायर। सर्वोदय विचारों के व्यक्ति थे।
अमूमन कुरते-पायजामे के साथ कश्मीरी टोपी पहनते तथा विशेष समागमों में चूढ़ीदार पायजामा, कुरता, ऊपर से जंचवी अचकन, जिसके अन्दर-बाहर जेबें होतीं। सिर ऊपर सफेद मायादार तुरले वाली पगड़ी। सिर के बीच कुल्ला रखकर पगड़ी बांधते। पगड़ी के बीच में से ऊपर की ओर लिफ़ाफ़ेदार तुर्ला तथा पगड़ी के पीछे पीठ पर लम्बा लर। पैरों मंे काले रंग का जलसा (पंजाबी जूता) पहनते। एक रोअबदार प्रभावशाली शख्सियत! धैर्य तथ कुसैलेपन का मिश्रण।
उस्ताद जी के पास साधू-संत, विद्वान लोगों का आना-जाना बना रहता था, क्योंकि वह धार्मिक गीत, शब्द, भेंटें भी लिखते थे। क्षेत्र के प्रसिद्ध गायक उनके लिखे भजन, शब्द, गीत कीर्तन तथा धार्मिक कार्यों-उत्सवों में गाते थे। राज्य के प्रसिद्ध संत-महात्मा तथा महां पुरूषों का उनके घर आम आना जाना था। वह ऋषियों-मुनियों, गुरुओं तथा महांपुरूषों पर कविताएं भी लिखते थे। उन्होंने कुछ धार्मिक पुस्ताकें भी लिखीं।
जब मैंने उनको अपना उस्ताद धारण किया, तब वह सी.आई.डी. विभाग से बतौर एक आफिसर सेवानिवृत हो चुके थे। आयु उनकी होगी कोई 70 वर्ष के करीब।
जब मैंने नईं-नईं ग़ज़ल लिखनी शुरू की थी, तब मैंने उनको अपना उस्ताद मान लिया, तो उन्होंने अपने घर में एक छोटी-सी साहित्यिक मुलाक़ात (एकत्रिता) बुलाई, जिसमें शहर के नामचीन शायर बुलाए। उस समय मैंने उस्ताद जी को एक पगड़ी, गुड़ की पेसी तथा एक रूपया नतमस्तक होकर, चरण छूकर भेंट किया।
मुझे ग़ज़ल की मूल तकनीक, बहर (वज़न), प्रतीक-बिम्ब इत्यादि की कोई जानकारी नहीं थीं। वैसे मैं उस्ताद जी का नाम पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहता था। एक दिन मैं उस्ताद जी के घर चला गया। हमारे घर से उनके घर का फ़ासला लगभग दस मिण्टों का होगा। केवल एक सड़क पार करके दूसरी गली में उनका एक साधारण घर था। परंतु इतना ज़्यादा स्वच्छ-साफ़ कि सफ़ाई के लिहाज से ऐसा प्रतीत होता, जैसे कोई प्राचीन मन्दिर हो।
उनका घर गली की दाईं ओर था। घर के बाहर दो तख़्तों वाला दरवाज़ा तथा दाईं-बाईं ओर छोटे-छोटे दो कमरे। बीच गलीनुमां-सा रास्ता तथा आगे छोटा-सा आंगन। आंगन के साथ पीछे फिर छोटे-छोटे दो कमरे। आंगन की दाईं ओर छोटी-सी रसोई। रसोई के साथ छोटा-सा स्नान घर। बाईं ओर छोटा-सा स्टोर। बस इतना-सा घर था उस्ताद जी का। छत्तें छतीरों तथा बल्लियों की। कुल मिलाकर चार मरलों का छोटा-सा घर।
आंगन में लक्कड़ का साधारण-सा तख़्तपोश जिसके ऊपर एक साफ़ स्वच्छ चटाई बिछी होती थी। तख़्तपोश के ऊपर सैंची, सैंची के ऊपर सफेद कपड़ा तथा ऊपर गीता तथा गुरू ग्रंथ साहिब के श्लोकों की पोथियों का प्रकाश शोभनीय। यह धार्मिक पवित्र कार्य उनकी पत्नी करती थी।
उस्ताद जी की पत्नी धार्मिक ख़्यालों वाली महिला थी। शहर के सबसे धनाढ़य महंत्तों की बेटी थी।ं उनकी सफेद दुधिया साड़ी, दुधिया सफेद बाल, गोरा गुलाबी रंग। दरम्याना कद्। हंसता खिलता चेहरा। धैर्य तथा ख़ूबसूरत मुलायम शब्दों का उच्चारण, जैसे शहद टपकता हो। सारे मोहल्ले वाले उनका हृदय से आदर-सत्कार करते। समस्त धर्मों के बारे में संपूर्ण ज्ञान। विशेष तौर पर हिन्दू तथा सिक्ख धर्म के किसी भी विषय पर वह लगातार बोलने की क्षमता रखती थी। गुरूयों, ट्टषियों मुनियों की उनको कई कथाएं, श्लोक, कविताएं, दंत्त-कथाएं जुबानी ;कंठद्ध याद थी।
उस्ताद जी हिन्दी, पंजाबी तथा ऊर्दू साहित्य के लगभग प्रत्येक विषय पर लिखने में परिपक्ता रखते थे। उन्होंने तीनों भाषाओं में गद्य तथा पद्य की कई पुस्तकें लिखीं। उस्ताद जी राज्य स्तर पर भाषा विभाग से साहित्यिक पैंशन भी लेते थे।
मैंने उनसे लगभग छह वर्ष के करीब साहित्यिक सलाह-मश्विरा किया। शायरी की बारीकियों के बारे में ज्ञान हासिल किया। उनसे मैंने निजी तथा बाहरी ज़िंदगी के बारे में बहुत कुछ सीखा। उनसे एक पिता जैसा, एक सहृदय मित्र जैसा प्यार हासिल किया।
वह धैर्य में रहने वाले एक संतुलित सोच के पारदर्शी व्यक्ति थे। झूठ सामने आता तो क्रोधित हो उठते। नशों के बहुत खि़लाफ थे। एकदम शाकाहारी थे। मैंने उनसे एक अच्छे इन्सान वाले सभी गुण सीखे।
वह अपनी ईमानदारी, अनुशासन, सच्चे देश भक्त वाली, अनेकानेक स्वयं बीती सच्ची कहानियां भी सुनाते। अंध-विश्वास, रीति रिवाजों के डटकर खि़लाफ थे। उस्ताद जी अडियल तथा कब्बे ;कड़वेद्ध स्वभाव के व्यक्ति थे परंतु दिल के कोरे, रूह के सच्चे थे।
उनके बहुत सारे शिष्य उनके कड़वे स्वभाव के कारण ही उनसे दूर हो गए। वह आदमी का निरीक्षण, परीक्षण तथा अजमायश करते और फिर शिष्य बनाते। शिष्य में क्या साहित्य का सेंक है तब ही उसको शिष्य बनाते थे।
मैं तथा एक और शिष्य ही उनके अंतिम समय तक साथ रहे। शेष सब उनके कड़वे तथा सच्चे स्वभाव से परेशान होकर भाग गए। सच्चे तथा ईमानदार बंदे से उनकी बहुत बनती थी। उन बंदों पर वह जान न्योछावार करने को तैयार हो जाते।
सी.आई.डी. महकमें की नौकरी के दौरान वह ईमानदारी की वजह से कई बार सस्पैंड हुए। उन्होंने मुझे बताया कि एक बार वह एक शहर के सिटी पुलिस प्रभारी थे तो एक एस.एस.पी. ने उन्हें कहा कि मेरे बच्चों को सुबह-शाम स्कूल छोड़ने तथा ले आने का कोई इंतज़ाम करें तथा घर की जरूरी वस्तुएं भी पहुंचाईं जाएं।
तब उस्ताद जी ने उस एस.एस.पी. को साफ़ इन्कार कर दिया। जिसके बदले उस्ताद जी के ऊपर, एस.एस.पी. ने एक झूठा केस डाल दिया, कैद भी करवाई परंतु कुछ वर्षों के पश्चात उस्ताद जी बरी हो गए, परंतु एस.एस.पी. की गुलामी के आगे झुके नहीं।
उस्ताद जी ने बताया कि एक बार जब वह सी.आई.डी. में आफिसर थे तो तब नया-नया भारत आज़ाद हुआ था तो उस समय कामरेड तेजा सिंह स्वतंत्र जी का छोटा भाई मेदन सिंह मेदन जो एक स्वतंत्रता संग्रामी, साहित्याकार, नाटककार, अभिनयकार, चित्रकार, ड्रिफट वूडज़ शिल्पी, पीपल के सूखे पत्तों पर चित्रकारी करने वाला परिपक्व चित्रकार था। मेदन सिंह मेदन उस्ताद जी का पक्का दोस्त था। मेदन जी ने पद्य-गद्य में कई पुस्तकें साहित्य की झोली में डालीं।
मेदन जी दो उम्र कैद की सजा भुक्त चुके थे। उन्होंने जेलों में बहुत सुधार किए। जेलों में सुधारवादी, मानवतावादी, देश भक्ति के कई नाटक खेले। वह परिवक्व कलाकार, नाटक के सूत्रधार थे। उन्होंने जेल में रहकर एक लघु फिल्म भी बनाई, जिसमें वह स्वयं हीरो थे। प्राचीन पर्दे वाली यह फिल्म आज भी उनके परिवार के पास मौजूद है।
मेदन जी गोरे रंग के, ऊंचे कद काठ के तथा आकर्षिक शख्सियत के मालिक थे। उस्ताद जी ने बताया कि महकमें की ओर से एक बार उनकी ड्यूटी लगाई गई कि भगौडे मेदन सिंह मेदन को ज़िंदा पकड़कर गिरफ्रतार किया जाए, क्योंकि मेदन जी के ऊपर देश द्रोह के कई केस अंग्रेजों ने डाले हुए थे। महकमे को पता नहीं था कि उस्ताद जी तथा सरदार मेदन सिंह मेदन जी की साहित्यिक तथा निजी गहरी दोस्ती है।
रात के समय उस्ताद जी मेदन जी के गांव में गए जो कि भारत-पाकि सीमा पर स्थित था तथा मेदन जी से कहने लगे, ‘मेरी सरकारी तौर पर तुझे ज़िंदा गिरफ्तार करने की ड्यूटी लगी है। कई और मुलाज़िम भी तेरी भाल में हैं। इस तरह कर तू मेरे घर आ जा क्योंकि सरकार ने तुझे पकड़ने के लिए पुलिस की कई टीमें बना रखी हैं, जो आपके ठिकानों पर, रिश्तेदारों के घरों पर, दोस्तों के घरों पर तुझे पकड़ने के लिए जाएंगे। तुम मेरे घर आ जाओ क्योंकि सरकार ने एक माह का समय दिया है।’
फिर सुबह होने से पहले-पहले ही मेदन जी भेस बदलकर उस्ताद जी के घर आ गए। एक महीना उनके घर में ही रहे। वहां ही उनके भोजन तथा रैन बसेरे का इंतजाम कर दिया था। किसी को खबर तक नहीं लग सकती थी कि मेदन जी कहां हैं।
उस्ताद जी अपनी सरकारी ड्यूटी के मुताबिक मेदन जी को ढंूढ़ने के लिए बाहर चले जाते और देर रात को घर आते। कभी-कभी वह सप्ताह पर घर नहीं आते। पुलिस की टुकड़ियों के साथ मेदन जी को ढंूढ़ने की कोशिश करते रहते। मेदन जी का कोई ठिकाना न छोड़ते। पुलिस तथा सी.आई.डी. ने मेदन जी का कोई ठिकाना न छोड़ा परंतु मेदन जी को कहां ढंूढ़ते? इस तरह एक माह का समय बीत गया। मेदन जी का कोई पता न चला। उस्ताद जी ने महकमें को लिखकर भेज दिया कि मेदन सिंह मेदन का कोई सुराग हाथ में नहीं लगा। उस्ताद जी ने एक माह तक मेदन जी को अपने ही घर में रखा तथा स्वयं उनको ढूंढ़ने के लिए कई-कई दिन ड्यूटी पर बाहर रहते।
एक दिन मैं शाम ढले उस्ताद जी को मिलने गया तो उन्होंने मुझे बताते हुए कहा, ‘यार, बालम, तेरी आंटी (उस्ताद जी की पत्नी) दो तीन दिनों से सख़्त बीमार है, बहुत ईलाज करवाया परंतु कोई फर्क नहीं पड़ रहा। अच्छे अच्छे डॉक्टरों को दिखाया है। बीमारी का पता ही नहीं चलता।’ परंतु कुछ दिनों के पश्चात ही माता जी इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए। माता जी की आयु लगभग 75 वर्ष के करीब थी।
मुझे उस्ताद जी ने बताया कि उन्होंने अपनी पत्नी से ‘लव मैरिज’ की थी। बहुत धनाढ़य घर की बेटी थी। माता जी के अभिभावक शहर के जाने माने लोग थे। उस्ताद जी मामूली पुलिस मुलाज़िम। उस्ताद जी की निष्ठा तथा ईमानदारी की वजह से उनकी पत्नी ने उनसे ‘लव मैरिज’ की थी। घर से भागकर उनकी पत्नी ने गुप्त जबर्दस्ती शादी की थी। कुंवारेपन में, जितनी उस्ताद जी की तनख्वाह थी उतने धन के तो उनकी पत्नी वस्त्र ही पहन लेती थी। जब घर से भागी थी तो उनकी माता ने (पत्नी की मां ने) एक किलो सोना साथ दे दिया था।
उस्ताद जी को दो लड़के थे, एक बैंक में मैनेजर तथा दूसरा इंटैलीजैंस ब्यूरो में उच्चाधिकारी था। दोनों विवाहित तथा अपने-अपने परिवार में खुशहाल। घर में उस्ताद जी तथा उनकी पत्नी ही रहते थे।
उस्ताद जी के ससुराल बहुत धनाढ़य थे परंतु उस्ताद जी से बहुत डरते थे क्योंकि उस्ताद जी ने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए थे। उस्ताद जी के सालों ने कई बार कहा था, ‘पण्डित जी, शहर के जिस एरिए में जितना बड़ा प्लाट चाहिए ले लो, कोठी बनवा लो। हम कोठी बनवाने के लिए धन भी दे देंगें।’
परंतु उस्ताद जी ने उनकी एक न मानीं तथा अपनी सच्ची निष्ठा तथा ईमानदारी की आन-शान-मान से जीवन व्यतीत किया। भिखारी तथा लालची बनकर वह नहीं रहे। न पिछल्लगू न डुगडुगी बने। लालची होते तो कोठी बनवा सकते थे। वह सारी उम्र छोटे-से पुराने घर में ही रहे। किसी की भी आर्थिक गुलामी नहीं की।
वह मुझे कहा करते थे, ‘देख पुत्र, ईमानदारी का उदाहरण समाज को, पीढ़ियों को रौशनी देता रहता है। उन्नति का सूत्र ही ईमानदारी है। समाज में उदाहरण तथा पथ प्रदर्शक बनते हैं जो ईमानदारी से सच्चा स्वच्छ जीवन व्यतीत करते हैं। बंदे ने कोई हज़ार वर्ष थोड़ी जीना है। यह जायदाद, धन दौलत यहीं ही रह जाएगी। देश के लिए, समाज के लिए कुछ ऐसा छोड़ जाओ कि दुनिया आपको याद करे। आपकी सच्ची निष्ठावान कर्मशीलता से कोई सीख सके। अपनी कमाई में संतुष्टि होनी चाहिए। मीट मुर्गे खाने वाले, शराब पीने वाले, धन दौलत वाले कोई हज़ार वर्ष नहीं जीएंगे। बंदे की आयु ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष ही है। ईमानदारी तथा सच्चाई का पल्लू मत छोड़ो।’
उस्ताद जी की पत्नी 75 वर्षों के करीब इस फानी दुनिया को अलविदा कह गई। माता जी की मृतक देह आंगन में पड़ी थी। दोपहर बाद उनका सस्कार करना था, उनके पुत्र, बहूएं, पोते, पोतियां, रिश्तेदार, मित्र, संग-स्नेही सब एकत्रित थे। चारों ओर शोक की तनहाई पसरी हुई थी।
उस्ताद जी मुझे तथा दूसरे शिष्य को आवाज़ लगाकर कहने लगे, ‘बाज़ार जाओ, और अर्थी बनवा कर लाओ, परंतु सुनो, जो अर्थी बनवानीं हैे उसके बीच डोली बनवाकर लाना।’ मैंने तथा मेरे गुरूभाई ने हैरानी से कहा, ‘उस्ताद जी, यह कैसे हो सकता है कि अर्थी में डोली बनाई जा सके, यह तो कभी सुना ही नहीं, न देखा है।’
वह क्रोध में आकर कहने लगे, आपको जो कहा, ‘वैसे ही करते जाओ। सुना आप ने।’
मैं और मेरा गुरूभाई दोस्त संसोपंज में पड़ गए, कि अब क्या करें? ख़ैर, हम एक दोस्त की लक्कड़ की दुकान पर गए। उसको निम्रता से विनय करते हुए कहा, ‘यार, तू जितने पैसे मर्ज़ी ले ले परंतु तू अर्थी में डोली बना दे।’
वह सुनकर बहुत हैरान हुआ, ‘यह कैसे हो सकता है? यार, यह तो मैंने कभी देखा नहीं, न सुना है कि अर्थी में डोली बनाई जाए।’
हमने उसको हाथ जोड़कर कहा, ‘यार, हमारी इज़्जत का सवाल है, तू पैसे जितने मर्ज़ी ले परंतु आरजी तौर पर किसी भी ढंग से, तरीके से इस तरह फट्टिðयों को फिट कर दे के डोली नुमां लगे।’
ख़ैर, उसने आरजी तौर पर इस तरह फट्टिðयों में जगह छोड़कर अर्थी में डोली बना दी। हम दोनों वह डोली नुमां अर्थी रिक्शे के ऊपर रखकर ले आए। सब लोग देखकर हैरान हो गए, चकित हो गए। कुछ लोग मुंह छुपाकर हंसने लगे। सरगोशियों को पंख लग गए, परंतु उस्ताद जी को तो किसी की कोई परवाह नहीं थी।
डोली नुमां अर्थी में माता जी की मृतक देह को लाल रंग की खूबसूरत साड़ी पहना कर, एक दुल्हन की भांति सजाकर रख दिया। उस्ताद जी ने पहले पत्नी का कई बार माथा चूमा फिर पैरों में सिर रखकर ऊंची-ऊंची बहुत रोए। उनको बड़ी मुश्किल से दूर किया गया।
जब सस्कार के लिए श्मशानघाट पहुंचे तो वहां का एक मलंग सा बंदा, जो श्मशानघाट की देखभाल के लिए होगा, वह बंदा डोली नुमां अर्थी देखकर कहने लगा, ‘यह ऐसा नहीं हो सकता। डोली चिता में नहीं रखी जा सकती।’
क्योंकि उस्ताद जी ने कहा, ‘डोली नुमां अर्थी सहित ही पार्थिक देह को चिता में रखना है। डोली से पार्थिक देह बाहर नहीं निकाली जाएगी।’ सब लोग हैरान थे परंतु बोलने की कोई ज़ुर्रत नहीं कर रहा था। उस्ताद जी ने क्रोध में आकर मुझे कहा, ‘इस बंदे को बीस रूपए दे दो, इस साले ने दारू पीनी होगी।’ हमने उस मलंग बंदे को बीस रूपए दे दिए तथा वह बीस रूपए लेकर चुपचाप वहां से चला गया।
आखि़र सब शोक-धार्मिक रस्में करने के बाद डोली नुमां अर्थी के सहित ही पार्थिक देह को चिता में रख दिया। किसी ने भी विरोधता नहीं की। क्योंकि सबको मालूम था कि उस्ताद जी अब किसी की भी नहीं मानेंगे। उनकी भावुकता बुलंदी पर पहुंच चुकी थी। संस्कार के बाद समस्त लोग अपने अपने घरों को चले गए। जो भी रस्में थीं, रीति रिवाज थे सब कर दिए गए।
एक दिन मैं उस्ताद जी को मिलने गया तो वह बड़े भावुक होकर कहने लगे, ‘यार बालम, अब हमने भी चले जाना है, हमारा दिल नहीं लगता।’
मैंने कहा, ‘उस्ताद जी ऐसी बातें मत कहो, आप ने बड़ी लम्बी उम्र जीना है। आपकी सेहत बिल्कुल ठीक है।’ आंखों में आंसू भरते हुए कहने लगे, ‘नहीं, इस महीने के भीतर ही हमने भी चले जाना है।’
सर्दियों के दिन थे, उस्ताद जी रात रजाई में पलंग पर सिरहाना पीठ लगाकर सोए हुए थे। सुबह उनकी बहू ने आकर देखा तो उस्ताद जी श्वाँस छोड़ चुके थे। ख़ैर, उस्ताद जी पूरे 25 दिनों के बाद इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए।
— बलविन्दर ‘बालम’