यह तथ्य अत्यंत विचारणीय है ,कि हमारे समाज में आज भी स्त्री और पुरुष के मध्य भेदभाव किया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज की सोच में रत्ती भर बदलाव नहीं आया है।यहाँ यदि बालक कोई अच्छा कार्य करता है, तो उसका श्रेय पिता को दिया जाता है, और यदि दुर्भाग्यवश कोई बालक कुसंगति में पड़कर गलत राह पर चलता है, तो माँ को ही दोषी ठहराया जाता है। यह परिपाटी सदियों से चली आ रही है, आज आवश्यकता है इस चलन को परिवर्तित करने की। प्रत्येक अपराध के लिए आखिर स्त्री ही दोषी क्यों मानी जाती है?यह अत्यंत निंदनीय है। प्रायः समाचार पत्रों में ऐसी खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं की यदि किसी स्त्री के बेटे ने किसी बालिका के साथ बलात्कार किया है, तो बालिका पक्ष के व्यक्ति उसकी सजा उस लड़के की माँ को देते हैं …उसके साथ दुर्व्यवहार करके अपनी बेटी के कुकर्म का बदला लेते हैं… पीड़ित बालिका के साथ न्याय करने का प्रयास करते हैं। किंतु यह और भी उच्च श्रेणी का जघन्य अपराध है।जहाँ हम किसी निर्दोष को सजा देकर आत्मसंतुष्टि का अनुभव करते हैं।अतः हमें इस घटिया सोच को बदलना होगा।हमारे कानून में भी कहा गया है कि “चाहे कोई दोषी व्यक्ति छूट जाए, किंतु निर्दोष को सजा न होने पाए”।
एक दूसरा उदाहरण देखते हैं कि एक परिवार में विवाह के बारह वर्षों के पश्चात भी जब कोई संतान नहीं हुई, तो वर- वधु में से वधु को ही दोष दिया गया। तथा उसे बाँझ कहकर सम्बोधित किया गया। किंतु जब दोनों की डॉक्टरी जाँच कराई गई तो ,लड़के के शुक्राणुओं में कमी पाई गई। वह पिता बनने में असमर्थ पाया गया। यह अमानवीय है कि हम प्रत्येक अपराध के लिए औरतों को ही दोषी मानकर उन्हें भला-बुरा कहते रहें। अधिकांशतः हमारे समाज में यह भी देखा गया है, कि विवाह के कुछ वर्षों पश्चात जब स्त्री -पुरुष के मध्य विवाह विच्छेद होता है, तो इसका दोषी स्त्री को ही माना जाता है। उसके चरित्र पर ही लाँछन लगाए जाते हैं। पुरुष की गरिमा पर कोई असर नहीं पड़ता है ।
स्त्री के विषय में कहा जाता है कि यह “तलाकशुदा स्त्री” है “छोड़ी गई औरत”है “परित्यक्ता” है। आखिर कब तक हम स्त्री के कोमल मन को ही ठेस पहूँचाते रहेंगे? विवाह विच्छेद एक ऐसा विषय है जो वैचारिक मतभेद के कारण परिणाम तक पहुँचता है। इसमें किसी एक पक्ष की ही गलती नहीं होती है ,अपितु दोनों ही पक्ष इसके लिए उत्तरदाई होते हैं। ऐसे में मात्र स्त्री पर ही दोषारोपण करना कहाँ तक उचित है?
अन्य प्रसंग देखें,तो समाज में ऐसे भी प्रकरण सामने आते हैं ,जब एक स्त्री द्वारा पुनर्विवाह करने पर उसे उलहाने दिए जाते हैं। यदि किसी पुरुष की पत्नी की मृत्यु हो जाए और वह पुनर्विवाह कर ले, तो उसे उसकी मजबूरी का नाम दिया जाता है ।और यदि किसी महिला द्वारा पुरुष की मृत्यु हो जाने पर पुनर्विवाह कर लिया जाए, तो समाज उस महिला को संदेह की दृष्टि से देखता है। क्या महिलाओं को जीने का अधिकार नहीं है ?क्या उन्हें अपने सपने पूरे करने की स्वतंत्रता नहीं है? क्या स्त्री के अंदर भावनाएँ नहीं होतीं? वह भी इंसान है।
यहाँ तक कि यदि किसी बालिका के साथ बलात्कार हो जाए, तो इसमें पुरुष को दोषी न मानते हुए उस लड़की के परिधानों पर ही टीका- टिप्पणी की जाती है। कहा जाता है कि “कम कपड़े पहने हुए थे ,तो बलात्कार तो होता ही” क्या मनुष्य पशु है, जो वह अर्द्धनग्न तन देखकर अपना विवेक और संयम खो देता है ?आखिर कब तक हम पुरुषों की वकालत करते रहेंगे? कब तक उसके दोषों पर पर्दा डालते रहेंगे? कब तक स्त्री की मान मर्यादा को ठेस पहुँचाते रहेंगे ?कब तक प्रत्येक अपराध की सजा स्त्री को ही देते रहेंगे? आज समय है परिवर्तन का …बदलाव का…नवाचार का।
हमें समाज को बदलना है ,अपनी लेखनी के द्वारा उसे नई दिशा प्रदान करनी है। अंत में चंद पंक्तियाँ समस्त स्त्री जाति के लिए समर्पित करती हूँ–
अब न्याय हो,बस न्याय हो,
अन्याय का प्रतिकार हो।
बस अब और नहीं वहशीपन,
जीवन में सभ्यता का सार हो।
चहुँओर निशाचर घूम रहे हैं,
मानो मदिरा पीकर झूम रहे हैं,
इनकी उच्श्रृंखलता पर समाज में,
कोई अंकुश तो एक बार हो।
उन्मुक्त अभिलाषा पर हो,
मर्यादा का बंधन लगा हुआ,
हृदय का निलय संस्कारों की,
पूँजी से हो सजा हुआ।
जीवन में सादगी और,
शालीनता का दीप जलता रहे,
बेटियों का अस्तित्व जग में,
सुरक्षित सदा पलता रहे,
कुत्सित मानसिकता का,
अब सही उपचार हो,
मनुष्य के संयम,विवेक का
तनिक और विस्तार हो।
हे नारी! शस्त्र उठा ले तू,
कब तक अबला कहलाएगी?
चंडी,काली,और ज्वाला बन,
तभी आत्मरक्षा कर पायेगी।
तेरे तन पर तेरा ही,
एकमात्र अधिकार हो,
तेरे स्वप्नों,आकांक्षाओं का,
प्रति क्षण न बलात्कार हो।
ये अश्रु तेरे स्वाभिमान की,
रक्षा करने में असमर्थ हैं,
तेरे अतिरिक्त न और कोई
सम्मान को बचाने में समर्थ है।
यह कलियुग है, इस कलयुग में,
कान्हा मिलने दुर्लभ है ,
यहाँ सम्मान मिलना दुष्कर,
अपमान सर्वत्र, सुलभ है।
तेरे अंतर्मन में ही हे नारी,
गोविंद का अवतार हो ।
जो तू स्वयं रक्षा करे ,
तो बंद यह व्यभिचार हो।
नारी सुलभ कोमलता,
शालीनता को त्यागकर,
इंदु सी शीतल न बन,
स्वयं को रवि सी आग कर,
वासना की यह अनल,
बन गई है देखो दावानल,
त्राहि-त्राहि अस्मिता कराह उठी,
नारी क्रंदन का है कोलाहल,
मन की निर्बलता से लड़ने को
मन से अब तू तैयार हो ,
असुरों के बलिष्ठ तन पर,
असँख्य तेरे वार हो।
— प्रीति चौधरी “मनोरमा”