कविता

हॉकर

दिन भर बजती हैं
दरवाजे पर घंटियां
खुलता है दरवाजा हर बार
इस उम्मीद से
कोई आया होगा मिलने हमसें
देखते हैं
दरवाजे पर खड़ा है
हॉकर
दिए गए ऑर्डरों को
हाथ में लेकर
लेकर सामान
हम फिर आकर बैठ जाते हैं
इसी उम्मीद में
जरूर कोई आएगा मिलने हमसें
अगली घंटी के बजने पर
पर नाउम्मीद हो जाते हैं
फिर खड़े किसी हॉकर को देख कर

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020