व्यंग्य – सावन के अंधे
‘सावन के अंधे को सब हरा – ही- हरा दिखाई देता है’। यह कहावत आज- कल से नहीं प्राचीन काल से ही चली आ रही है।इस कहावत के पद-चिह्नों पर एक – दो नहीं, हमारे जैसे लाखों करोड़ों लोग चल रहे हैं। हम सभी ने अपनी आँखों पर मजबूत पट्टी बाँध रखी है।इसलिए हमें अपनी ओर से कुछ भी देखने की आवश्यकता नहीं रह गई है।हमें आप उनका पिछलग्गू कहकर अपमानित मत कीजिए, हम तो सच्चे अनुगामी हैं, सद्भक्त हैं।
सद्भक्त वह होता है, जो अपनी सोच का समर्पण अपने आराध्य को कर देता है। हमारे कुछ विरोधी तत्त्व यह भी कह सकते हैं ,कि हमारी बुद्धि दिवालिया हो गई है। अब आप कुछ भी कहें: चमचा कहें, अंध भक्त कहें अथवा दीवाना कहें। जो भी कहें , कह सकते हैं। पर हम तो अपने विवेक और चमड़े की दोनों प्रकार की आँखें उनके कारण बंद कर चुके हैं।यदि आँखों के कोई औऱ भी प्रकार होते हों, तो भी वे सब उनके लिए समर्पित हैं। जैसे प्रेम दीवानी मीराबाई कृष्ण भक्ति में दीवानी हो गई थी ,हमारा दीवानापन किसी भी अर्थ में उससे कम नहीं है। ‘मेरौ तौ गिरधर गोपाल दूसरौ न कोई ।’
यदि हमारे आराध्य अपने मुख कमल से कुछ भी बाहर निकाल कर वमन कर देते हैं, और कुछ अंतराल के बाद किसी स्वार्थवश उसे पुनः अपने मुख कमल से उदरस्थ भी कर लेते हैं ,तो भी हम उनके इस प्रशंसनीय कार्य की सराहना ही करते थे , करते हैं और करते भी रहेंगे।हिंदी सहित्य वाले भले मुहावरे की भाषा में इसे थूककर चाटना कहें ,तो कहते रहें ,हमारी बला से। हम तो अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे हुए अपनी जुबाँ से इसे विवेक का सही इस्तेमाल करना ही कहेंगे। भला अपने आराध्य में हमें कोई दोष, दुर्गुण, धोखा और धुंध क्यों दिखाई दे ? हम सभी यह सब अच्छी तरह से जानते हैं कि ‘ जिसके प्रति हम आसक्त होते हैं,उसके अवगुण हमें दिखाई नहीं देते।’
हमारा आराध्य भले ही कितना बड़ा चोर, ढोंगी, धोखेबाज, शोषक ,अत्याचारी ,जुमलेबाज, वचन का मिथ्याचारी, ड्रामेबाज, बहुरूपिया जैसे अनेक विशेषणों का धारक औऱ वाहक हो , हमें आँखें बंद करके अनुगमन उसी का करना है। यदि धोखे से हमारी आँखों की पट्टी हट भी जाए , तो भी हमें आँखें बंद कर लेनी हैं। क्योंकि सद्भक्त के गुणों के अनुसार हमें अपने ‘सतपथ’ से क्षण मात्र के लिए भी विच्युत नहीं होना है।
आप और हम यह भी अच्छी तरह से जानते समझते हैं कि इस धरा धाम पर जिसने भी अपने चरण रखे हैं , वह ‘जड़ चेतन गुण दोष मय विश्व कीन्ह करतार’ उक्ति के अनुसार शत – प्रतिशत श्रेष्ठ गुणवान नहीं है।और फिर इस कलयुग में ;जिसमें धर्म में भी पाप भरा हुआ हो, 100 में से 90 प्रतिशत पाप- ही -पाप बरस रहे हों ,वहाँ सतयुग (100 में से 99 पुण्य) भला कैसे हो सकते हैं। ‘काजर की कोठरी में कैसे हू सयानों जाय एक लीक काजर की लागि है पै लागि है।’
ऐसी हालत में भला आप ही बताइए कि जब हम सभी भक्तों ने अपनी बुद्धि को भी गिरवी रख दिया है, उसके साथ ही दिल भी दे दिया है। हम तो बस उनके ही प्राणों से चलते -फिरते हैं। हमारी समग्र जीवनी-शक्ति कर एक मात्र स्वामी, संवाहक, संचालक, परिचालक, परिपालक , पालक, मालिक सब वही हमारे आराध्य देव हैं ।वे चाहें थूक कर चाटें, चाहे चाटकर पुनः थूकें। हम तो उनके थूके हुए को भी सहस्रों बार चाटने में सहयोग करने को अहर्निश तैयार हैं। भक्त – धर्म के साँचे पालनकर्त्ता यदि कोई है ,तो वर्तमान कलयुग में हम ही हैं।
हमें अपने इस महान समर्पण पर प्रचंड घमंड भी है। यदि सौ झूठों के सामने दस सत्यवादी भी आकर चुनौती दें ,तो वह सत्य भी झूठ सिद्ध हो जाता है। आज हम उसी युग में जी रहे हैं। कलयुग में सत्य को ,साँचे इंसान को और आराध्य – आराधक को ढूँढना ,ठीक वैसे ही है ,जैसे चील के घोंसले में माँस ढूँढना। मालूम है कि यह बहुमत का जमाना है। यहाँ बहुमत की जीत होती है ,भले ही वह मूर्खों का हो , झूठों का हो , चोरों का हो, चरित्रहीनों का हो, जुमलेबाजों का हो।बहुमत के आगे अच्छे-अच्छे साँचाधारी भी पानी भरते हैं। हम ऐसे ही ‘भगवानों’ के सच्चे भक्त हैं। बोलो कलयुगी ‘भगवान’ की ….
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’