सड़कों पर गुंडई दिखा वह खास हो गए,
बदमाशी की परीक्षा में अब पास हो गए ।
ये राजा क्यो किताब से बाहर नहीं चलता-
जब, टेड़ी अंगुलियों के सभी दास हो गए ।
सब हो गए हैं स्वार्थी, इस जंगल के पेड़ ये-
झूंठे शब्द ही इनका अब विस्वास हो गए ।
इस घर का होगा क्या ये भगवान ही जाने-
सारे ही नियम यहाँ के, बकवास हो गए ।
विकास के पहाड़ पर हम चढ़ते चले गए-
पर ये हृदय क्यों हमारे बदहवास हो गए ।
डंडा की जगह गधों को जब पान दोगे तुम-
तो आरोप तो लगेंगे ही क्यों उदास हो गए ।
ये चौकीदारी छोड़ तू, ग्वाले का काम कर-
ये विकसित-खंडहर, ढोरों का वास हो गए ।
— प्रमोद गुप्त