तृणमूल कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा के मायने
विगत विधानसभा चुनाव में जीत के बाद तृणमूल कांग्रेस का आत्मविश्वास आसमान पर है , पश्चिम बंगाल में भाजपा के विधायक लगातार पार्टी छोड़ तृणमूल कांग्रेस में वापस आ रहें है , तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल के अतिरिक्त कई और राज्यों में अपनी सक्रियता बढा दी है , पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में तृणमूल कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है जो राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी को चुनौती दे सकती है और स्पष्ट शब्दों में कहें तो तृणमूल कांग्रेस सभी विपक्षी दलों को भी यह संदेश देना चाहती है कि ममता बनर्जी ही भाजपा और नरेन्द्र मोदी को न सिर्फ चुनौती दे सकती है अपितु प्रधानमंत्री की सशक्त उम्मीदवार हो सकती है ।
ममता बनर्जी बहुत अच्छी तरह समझती है सिर्फ पश्चिम बंगाल उन्हें न राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर सकता है न ही पश्चिम बंगाल के पास लोकसभा की इतनी सीटें हैं जिससे प्रधानमंत्री की उनकी दावेदारी पुख्ता हो सके , इसीलिए ममता बनर्जी अन्य राज्यों में न सिर्फ अपना संगठन बनाने की कोशिश कर रही है अपितु अन्य दलों के नेताओं को तृणमूल कांग्रेस में जोड़ने का काम कर रहीं हैं , विगत विधानसभा चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस की रणनीति और अन्य राज्यों में तृणमूल कांग्रेस से जुड़ने वालों नेताओं पर गौर करें तो 23 नवम्बर को ममता बनर्जी ने अपने दिल्ली दौरे पर पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी एवं कांग्रेस नेता कृति आजाद तथा जेडीयू से निष्कासित नेता पवन वर्मा को तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता दिलायी है , इसके पहले भी ममता बनर्जी के गोवा दौरा पर पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिन्हो फलेरियो सहित कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए । उत्तर प्रदेश की बात करें तो वहाँ भी पूर्व कांग्रेसी ललितेश की अगुवाई में कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष रवि शंकर पाण्डेय, जिला कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता शशि उपाध्याय , पूर्व चेयरमैन बैजनाथ सिंह , वरिष्ठ नेता ललित पति त्रिपाठी और भी कई प्रमुख कांग्रेसी नेता तृणमूल में शामिल हो गए। त्रिपुरा की बात करें तो वहां भी तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता सुबल भौमिक को तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर लिया, हरियाणा में भी पूर्व कांग्रेस नेता अशोक तंवर ने तृणमूल कांग्रेस का दामन थामा है , हालांकि पिछले चुनाव में टिकट बंटवारे में पैसे की लेने के आरोप के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी और अगर इन राज्यों के अलाव पश्चिम बंगाल की बात करें तो कांग्रेस अध्यक्ष रही सुष्मिता देव तथा पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत मुखर्जी ने भी तृणमूल कांग्रेस का दामन थामा है । कुल मिलाकर देखें तो तृणमूल कांग्रेस के लिए कांग्रेस एक साॅफ्ट टारगेट है जिसकी राजनीतिक जमीन पर तृणमूल कांग्रेस अपना फसल उगाना चाहती है , शायद यही कारण है कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच तल्खी लगातार जारी है । ऐसे में सवाल उठता है कि तृणमूल कांग्रेस की इस राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वकांक्षा के क्या मायने हैं ? तृणमूल कांग्रेस की ऐसी महत्वकांक्षा का विपक्षी दलों की राजनीतिक एकता पर कैसा प्रभाव पड़ सकता है ? क्या सचमुच तृणमूल कांग्रेस की ऐसी महत्वाकांक्षा भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर देगी ? क्या सभी विपक्षी दल ममता बनर्जी का नेतृत्व स्वीकार करेंगें? , तृणमूल कांग्रेस क्या राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का विकल्प बन सकती है ? और सबसे बड़ा सवाल कि क्या कांग्रेस ममता बनर्जी की अगुवाई में विपक्षी क्षेत्रीय दलों का साथ दे पाएगी ?
किसी भी क्षेत्रीय दल का अपने राज्य के विधान सभा चुनाव में व्यापक जीत के बाद प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा रखना कोई नयी बात नहीं है , बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव हो , बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार हो , उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव हो , आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हो , जब भी कोई क्षेत्रीय दल अपनी सफलता के चरम पर रहा है , उसके मुखिया की महत्वकांक्षा दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने की रही है , लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब भी कोई क्षेत्रीय दल अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्यों में पांव पसारने की कोशिश करता है तो कहीं न कहीं उस राज्य में स्थापित प्रमुख क्षेत्रीय दलों के ही जमीन में अपनी हिस्सेदारी ढूंढने लगता है , ऐसे में क्षेत्रीय विपक्षी दल एक दूसरे के आमने सामने आ जाते है , जिसका नकारात्मक प्रभाव प्रदर्शन पर तो पड़ता ही है , विपक्षी एकता पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है , जिसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलता है । एक बड़ी समस्या यह भी है कि लोकसभा चुनाव में भी अपने क्षेत्र में शक्तिशाली क्षेत्रीय दल किसी दूसरे क्षेत्रीय दल से गठबंधन नहीं करना चाहते , क्योंकि इससे दूसरे दलों को न सिर्फ चुनाव में सीट जीतने का मौका मिलता है अपितु अगर अन्य राज्यों से आए क्षेत्रीय दल को मौका मिला तो वी भी अपना पांव पसार सकते हैं , जो स्थानीय क्षेत्रीय दल के लिए भविष्य में हानिकारक सिद्ध हो सकता है , इतना ही नहीं विपक्षी दलों में शामिल एक ही प्रदेश में दो या दो से अधिक शक्तिशाली क्षेत्रीय दल आपसी गठबंधन के बदले अलग – अलग चुनाव लड़ते हैं ताकि उनके क्षेत्र और कैडर में कोई सेंध न लगा सके , उदाहरण हेतु पश्चिम बंगाल को ही लें तो वामपंथी दल और तृणमूल साथ चुनाव नहीं लड़ते , उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा का कोई गठबंधन नहीं होता , ऐसे में विपक्ष के किसी भी दल के नेता को अगर प्रधानमंत्री का उम्मीदवार होना है तो उसकी सबसे बड़ी मुश्किल है चुनाव से पहले सभी विपक्षी दलों को एकजुट करना , यही चुनौती तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के समक्ष भी है जिसे पाटना फिलहाल तो ममता बनर्जी के लिए मुमकिन नहीं दिखता है ।
ममता बनर्जी की सबसे बड़ी चुनौती या उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा की राह का सबसे बड़ा रोड़ा भाजपा से कहीं अधिक कांग्रेस है , क्योंकि जब से भाजपा गठबंधन सत्ता में आयी है तब से कांग्रेस ही प्रमुख विपक्ष की भूमिका में रही है , कई क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन में चुनाव भी लड़ती रही है , कई राज्यों में राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण कांग्रेस आज भी बेहद मजबूत है , ऐसे में कांग्रेस यह मानती है कि अगर कभी भी वर्तमान विपक्ष सत्ता में आता है तो प्रधानमंत्री हेतु प्रमुख दावेदारी कांग्रेस ही होगी , लेकिन जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप खड़ा करने की कोशिश कर रही है इससे न सिर्फ दोनों के बीच तल्खी बढ रही है अपितु विपक्षी एकता और कमजोर होता जा रहा है , जिसका स्पष्ट उदाहरण उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दिख रहा है, जब सपा और तृणमूल कांग्रेस की गठबंधन की संभावना है जबकि कांग्रेस ने अलग चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है । ऐसे में विपक्षी दलों के लिए सबसे बेहतर यह होता कि सभी सशक्त क्षेत्रीय दल अपने अपने राज्यों में पूरी ताकत से चुनाव लड़ते और बाकी विपक्षी दल अपना समर्थन व्यक्त करते , विपक्षी क्षेत्रीय दलों के लिए यह रणनीति ज्यादा कारगर साबित होती कि वे कांग्रेस को साथ लेकर चलते और जहाँ- जहाँ काग्रेस संगठनात्मक रूप से मजबूत स्थिति में वहाँ कांग्रेस के साथ चुनाव से पूर्व समझौता कर चुनाव लड़ते , शायद कांग्रेस के लिए भी आज की तारीख में यह रणनीति बेहतर होती। लेकिन जिस तरह से ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा तृणमूल कांग्रेस को अन्य राज्यों में विस्तार देने की है और नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है , तृणमूल कांग्रेस की कांग्रेस से दुरी लाजिमी है । ऐसे में यह संभव नहीं लगता है कि सभी विपक्षी दल चुनाव के पहले ममता बनर्जी का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे , क्योंकि भाजपा को हराने के अलावा भी तकरीबन सभी क्षेत्रीय दलों की अपनी – अपनी महत्वाकांक्षा है इसमें कोई संदेह नहीं है । कांग्रेस आज भी स्वयं को राष्ट्रीय दल के रूप में देखती है , इसीलिए कांग्रेस कभी भी ममता बनर्जी का नेतृत्व स्वीकार नहीं करेगी और इन सबसे से बड़ी बात यह है कि बिना कांग्रेस के विपक्ष सत्ता के जादूई आंकड़े तक पहुंच जाए इसकी संभावना नगण्य है । ऐसे में कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि ममता बनर्जी की राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वकाक्षा न सिर्फ विपक्ष को कमजोर करेगी अपितु विपक्षी दलों के एका में खलल की संभावना है । जिसका सीधा – सीधा फायदा भाजपा गठबंधन को हो सकता है ।
अमित कुमार अम्बष्ट ” आमिली “