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कविता की उपयोगिता पर परिचर्चा आयोजित

मंडला–कविता की उपयोगिता को शब्दों की परिधि में कैद नहीं किया जा सकता ! कविता अपने आप में जितनी  व्यापक है उतनी  ही वह हमारे लिए, हमारे समाज के लिए, हमारे भूमंडल के विस्तार लिए, हमारे ज्ञान विज्ञान के लिए, हमारे बौद्धिक विकास के लिए,  हमारे भीतर शिथिल भावनाओं को ऊर्जा प्रदान करने के लिए,  शब्दों के माध्यम से व्यक्ति और समाज को एक नई दिशा देने के लिए, यहां तक कि  कला, संस्कृति, धर्म, साहित्य  आदि के साथ-साथ  हम पाठकों के लिए भी  सागर की गहराई और सागर के विस्तार से भी अधिक  महत्वपूर्ण है,  इसमें कोई दो मत हो ही नहीं हो सकता।”
                 भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वावधान में गूगल मीट और  फेसबुक के “अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका ” के पेज पर पर ऑन लाइन आयोजित हेलो फेसबुक कवि सम्मेलन  का विषय प्रवर्तन करते हुए,  संस्था के अध्यक्ष एवं संयोजक सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किये !
               ” पाठकों के लिए कितनी उपयोगी है कविता ?”  विषय पर विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा – “इतनी ढेर सारी कविताओं  की उपयोगिता तभी है, जब पाठक उस कविता को पढ़े,  उसे ग्रहण करे। आज के कवियों को भी यह समझना होगा कि  कविता सपाटबयानी, गद्य या पहेली नहीं होती,  पाठकों के हृदय की भाषा होती है।
                 आज के महामंडित कवियों को  यह समझना  होगा कि आखिर उनकी कविताएं पाठकों के लिए लिखी  जा रही हैं या सिर्फ पुरस्कार, सम्मान और पुस्तकों की अलमारियों  की शोभा बढ़ाने के लिए ?
               ऑनलाइन कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए डॉ बी एल प्रवीण ( डुमरांव) ने कहा कि -” सवाल कविता के कवितापन पर आकर टिक जाता है। औसतन कुछ ही कविताएं होती हैं जो पाठक को अगली पंक्ति पढ़ने के लिए अभिप्रेरित करती हैं। अधिकतर कविताएं स्वांत: सुखाय के तर्ज पर ही लिखी जा रही हैं।
सचमुच में कविता का इतिहास देखा जाए तो हमें  निराशा होती है क्योंकि, आज की ज्यादातर
कविताएं बिना  किसी कसौटी अथवा कवितापन के प्रस्तुत हो रही हैं। हम गद्य के फ्रेम में कविता की आत्मा नहीं ढूंढ सकते। यही गूढ़ प्रश्न हमें उलझन में बांधे रहता है कि सब कुछ के बावजूद आखिर कविता अपील क्यों नहीं करती, कुछ अपवादों को छोड़कर। निश्चित रूप से हमें इसके कथ्य, शिल्प और शैली पर ध्यान देकर इसकी लयात्मकता को आत्मसात करना होगा। कविता को कविता में जीकर कविता की तरह लिखना पड़ेगा। “
                मुख्य अतिथि  प्रो(डॉ)शरद नारायण खरे (म. प्र. ) ने कहा कि – ” कविता मानव को मानव बनाने की कार्यशाला का नाम है। कविता मनोरंजन का विषय है,तो चिंतन प्रदान करने का जरिया भी होती है।वास्तव में कविता मनुष्यता को जाग्रत करती है,बुराईयों के विरुद्ध एक संघर्ष छेड़ती है।कविता पाठक की संवेदनाओं को जाग्रत करती है,उसकी भावनाओं को गति देती है,सुमति देती है,रवानी देती है,ऊर्जा देती है।”
  इस संगोष्ठी की विशिष्ट अतिथि आराधना प्रसाद में भी उपरोक्त विषय पर खूल कर चर्चा की ! इसके अतिरिक्त इस विषय पर ऋचा वर्मा,  संतोष मालवीय, गजानन पांडेय और रचना  ने भी अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए । संयोजक सिद्धेश्वर जी ने अपनी इस संस्था के माध्यम से , हर सप्ताह इस तरह की गोष्ठी आयोजित कर  हम नए- पुराने रचनाकारों से,  नई नई रचनाएं लिखने की प्रेरणा देते रहे हैं l  जहां पर रचनाकार एक दूसरे की टांग खींचने  में मशगूल हैं वहां  इनका यह प्रयास स्तुत्य और वंदनीय है !”
            राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित इस ऑनलाइन कवि सम्मेलन में एक दर्जन से अधिक  रचनाकारों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया l डॉ शरद नारायण खरे (म. प्र. )  -” रोदन करती आज दिशाएं,
मौसम पर पहरे हैं /अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं / संतोष मालवीय( म.प्र.) – “गरीबों की अब उलहाना बन गई है जिंदगी, अमीरों का देखो सिरहाना बन गई है जिंदगी/ मुट्ठी में बंद हो जिसके यह संसार सारा, उसकी जेब का खजाना बन गई है जिंदगी !” आराधना प्रसाद – ” जो अपने फैसले पल- पल बदलते रहते हैं, वो ज़िंदगी में यूँ ही हाथ मलते रहते हैं !”
 रशीद गौरी (राज ) -”  शब्द और अर्थ कहीं खो गया है, जो ना होना था वही हो गया है !”
बी एल प्रवीण ( डुमरांव) -”  किस युग में जी रहा  आदमी, जहर अपना पी रहा आदमी !”
              सिद्धेश्वर  -” न शिकवा प्यार से है न शिकायत है यार से,  खुद लौट आए हैं हम अपने ही द्वार से!, खुदा समझ कर जिसे पूजता रहा मैं,  पत्थर का बूत  लगा वो मुझको किनारे से !”
 शमां कौसर शमां  -” भूलना उसको मैं चाहूं, तो भुला भी ना सकूं, वो  जो चाहे तो किसी रोज भुला दे मुझको !” जवाहर लाल सिंह -”  फूल चाहे कम हो या ज्यादा,  मिट्टी नहीं कृषकों की बाधा !”
           ऋचा वर्मा  -”  अपने कंधों पर टिकाए सारी गृहस्थी का बोझ, घर की नारी की प्रशंसा करें रोज-रोज, तो समझो वह पुरुष है !”
 गजानन पांडेय( हैदराबाद)  -” आने वाला वक्त कठिन है, खुद को बदलें, कल को बचाएं, प्रकृति -मित्र का धर्म निभाएं !”मीना कुमारी परिहार  -” वतन की खुशबू है मुझे प्यारी,  जो पहचान दिलाती है हमें !”
पुष्प रंजन (अरवल ) -“डोल रहा है जो नशे में,वह धरा का शूद्र है /कह रही है बुद्ध की धरती,पुत्र नहीं, वह कुपुत्र है!प्रियंका श्रीवास्तव शुभ्र  -“चांदी का इक तार चमकता,आ  उलझा  तेरे  बालों  में!”
रचना  -”  वो खामोशी का शोर सताता था रात भर !”  और राज प्रिया रानी – ” देर हुई बहुत जनाब जवाब आते आते ,उम्र भी गुज़र गई प्यार आते- आते ,,
,बेवजह ताकती रहीं आंखें तेरी आस में,चांदनी पिघलती रही प्रभात आते आते । जैसी कविताओं ने ढेर सारे श्रोताओं का मन  मुग्ध कर दिया !
— प्रो.शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]