संस्मरण

ईश्वर भरोसे है सब कुछ

बात कुछ पुरानी है। इस से कोई विशेष अतर नहीं पड़ता।केवल कलाकार ही बदलते हैं, परिस्थितियां वही रहती हैं । उन दिनों मैं काफी अनुसंधान केन्द्र, ल्यामुंगो, तन्ज़ानिया में प्रतिनियुक था। मैं और इंस्ट्रक्टर मिस्टर मफूरु सरकारी काम के लिए सरकारी वाहन द्वारा दार-ए-सलाम गये थे।। वहां मुख्यालय में हमारी एक मीटिंग थी और अपने संस्थान के सरकारी सामान लाने के लिए जाना था। जाते समय हम बड़े आराम से गये, तीन दिन वहां रहना था और होटल में रहने की व्यवस्था पहले ही करवा ली थी। सरकारी काम समाप्त होने के बाद हमने पिक-अप में सामान चढ़वाया तथा उसे तिरपाल डाल कर बांध दिया। हमारे सामान में एक ड्रम पैट्रोल, स्टेशनरी का सामान, कर्मचारियों की‌ पोशाकें‌ और सीमैंट के 20 बोरे थे।

दार-ए-सलाम से हम‌ सवेरे नौ बजे के लगभग चले। यहां से ल्यामुंगो लगभग 300 मील की दूरी पर है और सामान्य गति से जायें तो आठ घंटे में पहुंच जाते हैं। वैसे कुछ लोग छः घंटे में ही पहुंच जाते हैं। रास्ते में कोरोगवे आता है जहां बसें रुकती हैं। गाड़ी पार्क करने की भी सुविधा है और सुरक्षा है।होटल‌ इत्यादि भी हैं। थोड़ा टहला भी जा सकता है। गाड़ी में बैठे थकावट को मिटाने के लिए कुछ देर का ठहराव अच्छा रहता है।

यहां से हम एक बजे चले ताकि पांच बजे तक घर पहुंच जाएं। चालक का घर वहां से थोड़ी दूर था और वहां पैदल ही जाया जा सकता है। सरकारी वाहन को सरकारी संस्थान के पास ही जमा करवाना पड़ता था या पुलिस स्टेशन पर रखना होता था।यह यहां का नियम था।

अभी 20 मील ही गये होंगे कि चालक ने ‌बताया कि गाड़ी के‌ इंजन से कुछ अजीब सी आवाज़ आ रही है, देख लेता हूं। कुछ देर उसने इंजन को झांक कर देखा और फिर अपनी सीट पर बैठ कर इंजन चालू किया तो कहने लगा, अब तो ठीक है। यहां कोई आधा घंटा लगा होगा। चालक ने मि मफूरु को बताया कि शीघ्र चलना होगा क्योंकि उसे नाईट ब्लाइंडनेस की शिकायत है, शाम को गाड़ी चलाने में कठिनाई होती है, इसलिए जल्दी चलते हैं। मैंने ‌कहा कि ठीक है परंतु आराम से चलाओ, शाम से पहले ही पहुंच जाएंगे। चालक चल तो ठीक ही रहा था और हम‌ सामे शहर‌ से कुछ ही मील दूर थे कि सड़क के बाएं ओर के स्थान पर गाड़ी दांई ओर को हो गयी और सामने की पैरापिट से टकराई और उधर ही पलट गई। शायद एक पलटी और लगी होगी तथा पिक अप अपनी साइड के ऊपर खड़ी हो गई। मैं मध्य में बैठा था।चालक का पता नहीं निकल कर कब भाग गया। पहले गाड़ी से मि मफूरु निकला और बाद में ‌मैं। चालक को कोई चोट नहीं आई थी। मफूरु के थोड़ी छोटी चोटें आई थीं परन्तु मेरे कुछ अधिक थीं। मैं चुपचाप सड़क से थोड़ा हटकर लेट गया था। मि मफूरु ने मुझे पूछा कि क्या ठीक हूं और मैंने संकेत से बताया ठीक है। हमारा सामान बिखर गया था ।हम दोनों सड़क के किनारे पड़े थे। मेरे दाहिने हाथ के अंगूठे और पहली अंगुली के बीच‌ वाले भाग की झिल्ली कट गई थी और खून निकल रहा था इसलिए अंगूठे और अंगुली को एक साथ दबा कर रखा था। मुंह का निचला होंठ भी कट गया था, इसलिए उसे दूसरे हाथ‌ के अंगूठे और अंगुलियों से होंठ को दबा रखा था। इस तरह मुंह से बोल नहीं सकता था।बाद में पता चला था कि कुछ चोट छाती पर‌ और‌ सिर पर भी लगी थी। इतनी देर में एक गाड़ी वहां रुकी, गुजराती में सुना, सारु छे, अर्थात सब ठीक ‌है और चलते बने। बहुत आश्चर्य हुआ ।यह हाल है हमारे भारतीयों का जो पिछले सौ साल से वहां विराजमान हैं।
‌एक ट्रक वाले ने हम लोगों को सड़क के किनारे पड़े देखकर हमारे पास ट्रक रोका और पूछा कि क्या आप लोग ठीक हैं? आवश्यकता हो तो हम आपको हस्पताल पहुंचा सकते हैं। मेरी तरफ देख कर वह बोला, उठ सकते हो और मैने उठने का प्रयास किया, उसने हाथ बढ़ाने का संकेत किया और फिर कंधे से पकड़ कर अपने वाहन के पास ले गया, तब उसे पता चला कि मेरे हाथ क्यों नहीं बढ़ रहे थे। एक तरफ से मि मफूरु ने सहारा दिया और दूसरी तरफ से ट्रक वाले ने तथा उसके सहायक ने कमर को उठा कर गेहूं की बोरियों के ऊपर लिटा कर हस्पताल पहुंचा दिया और वहां के डाक्टर को हमारे बारे में बता कर वह चला गया। हममें किसी में भी हिम्मत नहीं थी कि उसका नाम आदि पूछ लेते। मुझे तब पता चला जब मैं डाकटर के पास स्टेचर पर लेटा था।

डाक्टर ने पूछा कि चोट कहां लगी है तो मैंने हाथ‌ को हटाकर होंठ दिखाया और उसने एक इंजेक्शन देकर स्टिच लगाकर टेप से ढक दिया। फिर उसे दूसरा हाथ दिखाया तो वहां भी स्टिच लगा दिये तथा अंगूठे और अंगुली को सामान्य अंतर पर रख कर पट्टी बांध दी। फिर उसने छाती को देखा क्योंकि कपड़े फटे हुए थे।इसके बाद मुझे होश नहीं रहा।

रात भर उसी हस्पताल में रहा। सवेरे होश आने पर देखा कि मैं हस्पताल के बैड पर हूं और वहां सभी मरीज़ अफ्रीकन हैं। आस पास देखा तो समझ आया कि कल रात को‌ ही डाक्टर ने दर्द निवारक इंजेक्शन दिया था ‌और उस से अब होश आया है।उठ कर टायेलैट गया और हाथ धोने के समय‌ बड़ी कठिनाई हुई और वहां तौलिए की‌ आशा थी नहीं और मुंह भी नहीं धो सका।शीशा था नहीं, अपना चेहरा भी नहीं देख सका।वापस आकर बैड पर बैठा ही था , तभी डाक्टर आया और कहा कि यहां मेरा एक मित्र एशियन है, उसे बुलाया है ताकि वह तुम्हारे नाश्ता का प्रबंध कर दे। उसने यह भी बताया कि हमारे संस्थान को खबर कर दी है और वे दोपहर तक आ जाएंगे। उनके साथ आप चले जाना। के एन सी यू हस्पताल, मोशी से अपना पूरा चैक अप करवा लेना।

थोड़ी ही देर ‌में वह एशियन अपने साथ दलिया, बटर टोस्ट और चाय लेकर आया था। मैं उसे ‌देख कर‌ खुश तो बहुत हुआ और आश्चर्य इस बात का हुआ कि इसने कैसे अनुमान लगाया ‌कि मैं शाकाहारी हूं। मैंने उससे पहले पूछा कि‌ हम कहां हैं।पता चला कि यह सामे का जिला हस्पताल है, यहां का‌ डाकटर देवता है और‌ उसका अच्छा मित्र है। जब भी आवश्यकता होती है, वह सहायता के लिए बुला लेता है। गुजराती लोग अक्सर शाकाहारी होते हैं और मांस खाने वाला तो शाकाहार ले सकता है। यहां उसका एक ग्रोसरी स्टोर है और उसके बच्चे इंग्लैंड में पढ़ रहे हैं। यहां वह और उसकी पत्नी ही हैं। बड़ी ‌ही आत्मीयता से बात कर रहा था। मैंने कहा कि आप हमारे पास ल्यामुंगो अवश्य आना, हमें बड़ा अच्छा लगेगा। मैंने बता दिया कि दोपहर को हमें लेने आ रहे हैं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

‌साढ़े ग्यारह बजे के करीब हमारे संस्थान के निदेशक के साथ हमारी पत्नी हम लोगों को लेने के लिए आये। निदेशक ने हमारे घर जाकर दुर्घटना के बारे में बताया और साथ चलने को कहा। देखकर खुशी से अधिक हैरानी हुई कि अफ्रीकन पत्नी और बच्चों की परवाह नहीं करते और यह घर से लेकर आया है। हमने वहां के डाक्टर और नर्स को धन्यवाद दिया। मोशी में के एन सी यू हस्पताल में चैक-अप करवाया।वहां डाक्टर ने चैस्ट परीक्षण किया और हाथ पैर आदि देखकर कहा कि सब कुछ ठीक है। कुछ औषधियां दीं और दस दिन बाद पट्टी खुलवाने के लिए बुलाया। मि मफूरु ठीक था और उसे ताकत के लिए कुछ कैप्स्यूल दिए। यहां से हम अपने घर आए और निदेशक का धन्यवाद किया। बेटे ने देखते ही पूछा कि सारे शरीर का रंग सलेटी कैसे हो गया है।बेटी हैरान और पास आकर पूछा कि ऐसे कैसे हो गया।उन्हें सारा हाल बताया। हम दोनों को बड़ा अच्छा लगा। वास्तव में सीमैंट के बोरे गिरने के कारण हमारा रंग सलेटी हो गया था, कहीं भी मुंह देखने को शीशा नहीं मिला था। भगवान का धन्यवाद किया कि परिवार के पास सही सलामत पहुंच गया। यहां विदेश में स्थानीय लोगों की बोली समझ में नहीं आती थी और उनका व्यवहार तथा रहन-सहन भिन्न था, केवल ईश्वर पर ही भरोसा था।

— डा वी के शर्मा

डॉ. वी.के. शर्मा

मैं डॉ यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय सोलन से सेवा निवृत्त प्रोफेसर बागवानी हूं और लिखने का शौक है। 30 पुस्तक 50 पुस्तिकाएं और 300 लेख प्रकाशित हो चुके हैं। फ्लैट 4, ब्लाक 5ए, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, संजौली, शिमला 171006 हिमाचल प्रदेश। मेल [email protected] मो‌ फो 9816136653