एक उत्सव ऐसा भी : बूढ़ी दीवाली
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर और शिमला जिले के दूरदराज़ के क्षेत्रों में मंगल पर्व दीपावली के एक महीने बाद दीपावली जैसा ही एक पर्व मनाया जाता है, “बूढ़ी दीवाली”। सुन कर आश्चर्य होता है कि क्या दीवाली भी बूढ़ी हो सकती है !
परन्तु यह वास्तविकता है कि इन जिलों में, यह पर्व सदियों से मनाया जाता है । जहां इस पर्व के मनाए जाने का इतिहास बड़ा रोचक है तथा वहीं किंवदंतियों पर विश्वास करना भी कल्पना ही लगता है। ऐसा लगता है कि दीपावली के उपरान्त प्रायः सभी मंगल उत्सव, पर्व आदि समाप्त हो जाते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फबारी के कारण सर्दी का प्रकोप बढ़ जाता है और लोग घरों के अन्दर ही रहते हैं तब सामूहिक मनोरंजन की दृष्टि से और अन्दर रहने की उकताहट को दूर करने की भावना से ही इस प्रकार के पर्व को मनाने का विचार आया होगा और कालान्तर में यह परम्परा बन गई होगी।
शिमला और सिरमौर दोनों ही स्थानों पर बूढ़ी दीवाली मनाने के विषय में अलग-अलग अवधारणाएं हैं और उनका आपस में कोई सम्बन्ध दृष्टिगत नहीं होता। उत्तराखंड के जौनसार बावर में भी यह पर्व मनाया जाता है । परन्तु वहां कुछ अलग ही प्रकार के रीति-रिवाज हैं ।
” सिरमौर की बूढ़ी दीवाली ”
सिरमौर में बूढ़ी दीवाली का पर्व दीपावली के एक महीने बाद भीम अमावस के दिन मनाया जाता है। इस दिन लोग कुलदेवता के मन्दिर के प्रांगण में एकत्र होते हैं। अमावस की काली अंधेरी रात में हज़ारों की संख्या में लोग हाथ में जलती मशालें लेकर जुलूस के रूप में रात्रि के दो बजे कुलदेवी के मन्दिर के प्रांगण में एकत्र होते हैं। अंधकार पूर्ण रात्रि में मशालों की चमक का यह दृश्य रोमांचक और आकर्षक होता है। हाथों में मशालें लिए कौरवों पर पांडवों की विजय का भीषण उद्घोष करते हुए अपने लोकनृत्य की पदचाप के साथ उद्घोष के स्वर वातावरण में गुंजायमान हो उठते हैं। इस उद्घोष को सिरमौरी बोली में “हिम्बर” कहा जाता है।
हजारों ग्रामीण भीम अमावस के दिन हाथों में मशालें लिए ढोल, नगाड़े, दमामटू और रणसिंहे की थाप पर लोकनृत्य में झूमते हुए और उद्घोष करते हुए गांव के एक छोर पर निर्धारित स्थान पर एकत्र होते हैं। यह आयोजन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है अर्थात् कौरवों पर पांडवों की विजय और पांडवों का अपने राज्य स्थापन करने की प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उद्घोष सार्थक प्रतीत होता है। आयोजन के स्थान पर एक बड़ा अलाव जलाया जाता है जिसके इर्द-गिर्द नृत्य करते हुए लोग आत्मविभोर हो जाते हैं।
रात बीतते ही नृत्य करते, लोकवाद्यों को बजाते, मशालें लिए हुए जुलूस वापिस कुल देवी के मन्दिर में पहुंचता है। इस नृत्य को “रासा नृत्य”कहा जाता है। इस नृत्य में पुरुष और महिलाएं जुड़ते चले जाते हैं और जुलूस एक विशाल जन समूह का आकार ले लेता है। मशालें जलाने का तात्पर्य ‘अंधकार से उजाले की ओर’ जाने का प्रतीक है।
सिरमौर के गिरि नदी के पार दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र के बहुत से गांवों में यह पर्व मनाया जाता है, परन्तु शिलाई तहसील के द्रविल गांव की बूढ़ी दीवाली अपनी भव्यता और परम्परा के अनुसार मनाया जाने वाला यह पर्व अपनी अलग पहचान रखता है। द्रविल गांव के लोगों में त्यौहार अत्यन्त उत्साह, उल्लास और उमंग से मनाए जाते हैं। इस अवसर पर ग्रामीण लोगों के उत्साह को देख कर सभी आश्चर्यचकित रह जाते हैं । ऐसा लगता है जैसे शिलाई और संगड़ाह क्षेत्र के लोग इस पर्व का साल भर बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं और इस अवसर पर उनका उत्साह देखते ही बनता है।
यूँ तो दीपावली का त्यौहार पूरे भारत वर्ष में भगवान राम के लंका विजय के पश्चात् रावण का वध कर अयोध्या आने के उपलक्ष्य पर हार्दिक उल्लास और उत्साह से मनाया जाता है। परन्तु शिलाई और संगड़ाह क्षेत्रों में इसे महाभारत युद्ध के पश्चात पांडवों की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। धर्मराज युधिष्ठिर के राजतिलक की प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए पूरे वर्ष के लम्बे इंतजार के बाद बड़े हर्षोल्लास के साथ बूढ़ी दीवाली त्योहार मनाते हैं। इस अवसर पर लोग प्रातः से ही महासू देवता के मन्दिर में आकर अपनी श्रद्धा के अनुसार अन्न और अखरोट देवता को अर्पित करते हैं। अन्न और अखरोट अर्पित करने की प्रथा को “भ्यूरी ” कहा जाता है। दिन आरम्भ होते ही इस क्षेत्र के 150 घरों से लोग अपनी श्रद्धानुसार महासू देवता को भ्यूरी के रूप मे अन्न और अखरोट अर्पित करते हैं। इसके पश्चात गांव की लड़कियां मन्दिर के प्रांगण में एकत्र होकर “भ्यूरी” नृत्य करती हैं। ऐसा माना जाता है कि भ्यूरी नामक लड़की बूढ़ी दीवाली के अवसर पर अपने मायके नहीं आ पाती। उसी की व्यथा को व्यक्त करते हुए जो गीत गाए जाते हैं उन्हें “भ्यूरी गीत” कहते हैं। नृत्य करते हुए लड़कियां भ्यूरी गीत गाती हैं ।इन गीतों मे करुणरस की अभिव्यक्ति होती है । ऐसे भ्यूरी नृत्य के साथ वाद्ययंत्रों की संगति वर्जित मानी जाती है। नृत्य करती हुई इन लड़कियों के सम्मान में गांव की महिलाएँ “मूड़ा और शाकुली” घर पर बनाए गाए मिष्ठान्न भेंट करती हैं । नृत्य समाप्त होने पर नर्तक लड़कियां आपस में मिल बांट कर भेंट में आए हुए “मूड़ा और शाकुली” खाती हैं।यह अवसर सौहार्द्र का प्रतीक लगता है। मन्दिर का प्रांगण ऐसे सौहार्द्र पूर्ण वातावरण से सजीव हो उठता है।
रात के समय पुरुष, महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग सभी मिल कर इसी प्रांगण में अपना प्रिय पारम्परिक नृत्य “रासा” प्रस्तुत करते हैं। यह बहुत ही भव्य नृत्य होता है। इसमें नर्तक जुड़ते चले जाते हैं। पद संचालन जब ढोल नगाड़े की थाप पर एक साथ चलता है तब एक उल्लासपूर्ण वातावरण निर्मित हो उठता है। पूरा जनसमूह ढोल नगाड़े की थाप पर दायरा बना कर नृत्य करता है । दायरे में नृत्य करते करते ही कभी कभी बच्चों और महिलाओं के अलग अलग दायरे बन जाते हैं। पद चाल से ढोल की ताल और लय से समन्वय बनाते हुए जब भिन्न भिन्न दायरों में पूरा जनसमूह नृत्य करता है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो देव लोक से किन्नर धरती पर उतर आए हों ।
इसी बीच गांव के कुछ लोग प्रहसन प्रस्तुत करते हैं तब नर्तक दल अपनी थकान मिटाने के लिए इन प्रहसनों का आनन्द उठाते हैं। इन प्रहसनों को खेल कहा जाता है। इन प्रहसनों का मुख्य आकर्षण इनकी वेशभूषा है। प्रहसन करने वाले कलाकार स्थानीय समस्याओं को उजागर करते हुए । अपने डायलाग स्वयं ही बना लेते हैं। इसी बीच नर्तक छोटे-छोटे समूहों में नृत्य भी प्रस्तुत करते रहते हैं। रात्रि के समय प्रहसनों के बीच जो नृत्य होते हैं उनमें “बूढ़ा नृत्य” भी होता है। इसे एक प्रचलित लोक कथा के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है। एक बाघ गडरिए की भेड़ बकरियों को खा जाता है। पुरुष ही भेड़ बकरियों तथा बाघ की पोशाकें पहन कर नृत्य करते हैं। इनके हाव-भाव देख कर ग्रामीण हंसी से लोट पोट हो जाते हैं। आजकल प्रहसन नए विषयों पर भी प्रस्तुत होते हैं जिनमें जागरुकता सन्देश देने वाले प्रहसन अधिक पसन्द किए जाते हैं। इस प्रकार हर्षोल्लास के साथ बूढ़ी दीवाली की रात्रि का कार्यक्रम समाप्त हो जाता है।
दूसरे दिन, पूरा दिन नर्तक “रासा नृत्य” करते हैं। द्रविल क्षेत्र का यह रासा नृत्य इतना प्रसिद्ध है कि दूर-दूर से लोग इन्हें देखने आते हैं। उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग भी सिरमौर की बूढ़ी दीवाली का लुत्फ उठाने आते हैं। यह नृत्य पारम्परिक वेशभूषा में किया जाता है।इस वेशभूषा को “चोल्टू” कहा जाता है और इस नृत्य को चोल्टू नृत्य की संज्ञा भी दी जाती है।
इस नृत्य में भाग लेने के लिए गांव के प्रत्येक घर से एक पुरुष घेरदार सफेद चोल्टू पहन कर आता है।वे विशाल वृत्ताकार में ढोल नगाड़े की थाप पर नृत्य करते हैं। जब नर्तकों के घेरदार चोल्टू वृत्ताकार दिशा में घूमते हैं तो ऐसा लगता है मानों सफेद बगुले पक्षी अपने पंख फैलाए प्रांगण में इकट्ठे हो गए हों। उस समय यह एक अत्यन्त भव्य और मनोहारी दृश्य लगता है। चोल्टू के ऊपर का भाग आकर्षक कढ़ाई से सजा होता है जिस पर प्रमुख रूप से लाल ,पीले और हरे रंग के बेल बूटे बनाए जाते हैं। चोल्टू तैयार करने वाले कारीगर भी इस प्रकार की वेषभूषा बनाने के लिए विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। एक चोल्टू तैयार करने में लगभग पन्द्रह से बीस दिन लग जाते हैं। एक चोल्टू में चौदह मीटर कपड़ा लगता है और कढ़ाई करने में चार से पांच दिन का समय लग जाता है। कुछ कारीगर पुश्तैनी हैं उनके पूर्वज भी चोल्टू तैयार करते थे और आगामी पीढ़ी को इन्हें तैयार करने का प्रशिक्षण दे रहे हैं।
चार दिन तक चलने वाले इस त्यौहार के अन्तिम दिन को “उड़नद्यापीच”
कहते है, जिसका अर्थ है ‘समापन’। इस अन्तिम दिन मेहमानों का भरपूर स्वागत किया जाता है। उनके लिए पारम्परिक पकवान मीठी रोटी, तेल आलू, दाल-पीठी, गुलगुले, मूड़ा, शाकुली मिष्ठान्न खिलाएं जाते हैं। द्रविल गांव के लोग पारम्परिक रूप से देवता के नाम पर इस त्यौहार को मनाते हैं अतः इस दिन शराब का सेवन नहीं करते हैं। इस प्रकार बूढ़ी दीवाली का यह त्यौहार अत्यन्त शालीन और भव्य समारोह के साथ सम्पन्न होता है।
— डाॅ मनोरमा शर्मा