डार्क इन्टिरियर
मत झाँको मेरे अंदर, काली मटमैली सजावट से सजा है मेरे वजूद का हर एक कोना, वेदनाओं का शहर बसता है मुझमें ..
मेरे भीतर एक भयावह शोर है तलाश का, नाउम्मीदगी का, मायूसी का और अवहेलना का..
मैं अद्धरतल हूँ, छप्पर नहीं होता अधिकतर मेरे सर पर क्यूँकि दर्द की हर बारिश का हक है मुझे भिगोने का..
पोती गई है मेरे एहसासों की दीवारें रिवायतों के रंगों से जिसमें सिलन ही सिलन है कोई रंग खुशियों का नहीं…
सजाई गई है मेरे अरमानों की रीढ़ सरताज के सत्तात्मक शामियाने के भीतर जिनके सूर पर चलती है मेरी साँसें..
एक कालीन बिछी है मेरे ख़्वाबगाह की धरती पर जिस पर बैठकर मर्दों का एक समूह नृत्य करता है, वह डरता है कहीं मौन मेरा मुखर न हो जाए..
मेरे सिने पर कंटीली झाड़ियों का पर्दा है जिसके आरपार झाँकने की मुझे इजाज़त नहीं..
हिरक कनिका सी सजी रहती है मेरी पलकों पर कुछ बूँदें मेरी हर आहों की गवाही देते हरी रहती है तभी तो हंमेशा मेरे नैंनों की धरा..
ये जो सुंदर घाटिले पैर दिख रहे है उसके उपर असंख्य फ़रमानों की पाजेब पड़ी है इस पैरों को दहलीज़ लाँघने का आदेश नहीं..
एक झूमर टंगा है ज़िम्मेदारीयों का मेरे सर पर जिसमें रंग-बिरंगी बल्ब तो लगे है पर जिसको रोशन कर सके ऐसी कोई स्विच ही नहीं..
रुपहला एक पंछी बैठा है सुनहरे इस तन के भीतर जिसे आत्मा कहते है ना उसकी कौई औकात नहीं क्यूँकि वो एक स्त्री की आत्मा कहलाती है..
उमा, दुर्गा, लक्ष्मी के उपनामों से सजाई जाती है मेरी देह, दिखावे के पहरनों से मेरी शख़्सीयत को नवाजा जाता है, पर हकीकत की ज़मीन पर रद्दी सी पाई जाती हूँ।
— भावना ठाकर ‘भावु’