कविता

गीतों में तुमको छिपाते रहे

हम तो गीतों में तुमको छिपाते रहे।
गीत गाकर सदा मुस्कुराते रहे।
लेखनी को उठाकर के लिखता हूँ तब,
लहरें यादों की मुझको भिगोती हैं जब।
गीत तुम पर लिखे गुनगुनाते रहे,
हम तो गीतों में तुमको छिपाते रहे।
प्रेम के भाव गीतों में बसते रहे,
गुन गुनाकर उन्हें हम तो हँसते  रहे।
गम के दरिया में खुद को रिझाते रहे,
हम तो गीतों में तुमको छिपाते   रहे।
बरसे सावन बहुत और बहारे रहीं,
आस मिट न सकी हम तो हारे  नहीं।
प्रेम के नगमे हम तो लुटाते रहे,
हम तो गीतों में तुमको छिपाते रहे।
लीक जो भी बनी थी वो भाती  नहीं,
बिन तुम्हारे खुशी कोई सुहाती नहीं।
दरिया अश्कों का हम तो बहाते रहे,
हम तो गीतों में तुमको छिपाते  रहे।
— अशोक प्रियदर्शी

अशोक प्रियदर्शी

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