हमारी बस एक जापानी मंदिर के आगे रुकती है। अनेकों ध्वजा पताकाएं मंदिर के प्रांगण में बाँस के सहारे पेड़ों पर लटकाई गयी हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पहले पानी के नलके लगे हैं जिनका पानी एक मांद नुमा नहर में बहता रहता है। हमको एक लम्बी डंडी वाली करछी से पानी लेकर अपने हाथ – मुंह धोना है और कुल्ला भी करना है। नीचे भी एक नहर जैसी है जिसके बाहर पानी नहीं गिरना चाहिए। यह सारा पानी कहीं किसी भूमिगत रास्ते से बगीचे में जा रहा है। सर पर भी छींटा डालना है और फिर मंदिर में प्रवेश करना है। मंदिर महात्मा बुद्ध का है। मंदिर के सामने एक लम्बी सी गली बनी है जिसमे पूजा का सामान आदि ,पर्यटकों के लिए निशानियां आदि दुकानों में बिकती हैं और बहुत सुन्दर कमल की आकृति की मोमबत्तियां ,अगरबत्तियां आदि। बिलकुल बनारस की विश्वनाथ गली जैसा वातावरण है। तिब्बती प्रार्थना चक्र ,भाग्य वाचक यंत्र ,जिसमे पैसा डालकर आप अपना भाग्य पढ़ सकते हैं ,पण्डे जो विशेष प्रार्थनाएं आपकी ओर से भगवान् को पहुंचा देंगे। आदि सभी भारतीय मंदिरों के जैसे हथकंडे यहां मौजूद दिखे। दर्शन करते समय बुदबुदाते ,परिक्रमा करते ,बारम्बार शीश नवाते ,हाथ जोड़कर,आँखें मूंदकर विनती करते ,साष्टांग प्रणाम में लेटे जापानी भक्तगण देखे।
मंदिर के ठीक सामने एकलोहे की नक्काशी दार हौज रखी थी इसपर लोहे का सुन्दर मंदिर नुमा चंदोवा बना था। कदाचित वर्षा से बचाव के लिए। इसमें राख भरी थी और इस राख में सैकड़ों अगरबत्तियां लोग जलाकर खोंस रहे थे। अगरबत्तियों से वह सामने बुद्ध की प्रतिमा की आरती उतारते ,और उसे राख में टिका कर धूम अपने अंगों पर ग्रहण करते। गाइड बोली —
” इस प्रकार धुंआ मलकर लोग अपनी शारीरिक व्याधियों से निस्तार माँगते हैं। जहां तुम्हारे दर्द आदि हो ,धूम ले लो और यदि सारा शरीर ही रोगी हो तो इस कुंड में कूद जाओ। ”
मैं और मेरे पति श्रद्धा से अपना अगरबत्तियों का बण्डल खोलकर जलाते हैं और बुद्ध की प्रतिमा की ओर मुंह करके आरती उतरते है। फिर उसी तरह राख में खोंसकर धूम लेते हैं। गाइड हमें कनखियों से देख रही है। मंदिर परिसर में कई छोटे मोठे मंदिर हैं मगर सब देखे नहीं जा सकते।
अगला पड़ाव एक शिंटो समाधि पर होता है। कहने को तो यह भी एक मंदिर है मगर इसमें मूर्तियां कहीं नज़र नहीं आतीं। गाइड बताती है कि शिंटो धर्म प्रकृति की शक्तियों को पूजता है जो सदैव हमारे आसपास विद्यमान रहती हैं। इनके अनेक रूप हैं और अलग अलग विभाग हैं। जैसे वर्षा का देवता ,धरती का देवता ,पानी और नदियों का देवता ,वायु का देवता आदि। पर्यावरण का संतुलन बनाये रखने के लिए इन सभी को खुश रखना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है। इनकी अलग अलग मानें होती हैं जिन्हे पूर्ण करना मनुष्यों के लिए जरूरी है। अब बार बार मैं उसको क्यों टोकूँ अपनी बखान के। परन्तु है तो यह हिन्दू धारणा ही। और इसीलिये हवन और हविष्य बना है हिन्दू धर्म में। इंद्र, वरुण,वायु ,यम ,सूर्य ,चंद्र आदि सब साकार हो गए।
मंदिर बहुत विस्तृत क्षेत्र में बना है। खूब लम्बा पथ पार करने के बाद मुख्य द्वार आया। सारे रास्ते के दोनों ओर ढोलक के आकार के बड़े बड़े मटके ,जिनपर सुन्दर चित्रकारी की गयी थी ,एक के ऊपर एक पिरामिड की तरह रखे हुए थे। उनपर जापानी भाषा में मन्त्र लिखे हुए थे। हर शक्ति का अलग मन्त्र। देवताओं को खुश करने के लिए मानवों को धरती की सभी सुखदायी वस्तुएं उपलब्ध करवानी चाहिए। अतः इनमे साकी –चावल से बनी शराब अत्यावश्यक है। गाइड बताती है कि मंदिरों में देवदासियां ,जिनको ‘ गीशा ‘कहा जाता है ,विशेष रूप से शिक्षित की जाती थीं परन्तु अब यह अमेरिकी अमीरों को खुश करती हैं।
मुझको सोमरस और सोमनाथ के मंदिर की तीस हज़ार देवदासियां याद आती हैं जिनको मुहम्मद गोरी पशुओं की तरह रस्सियों से बांधकर ले गया था।
आगे देखा। — मंदिर में घुसने से पहले सीढ़ियों के पास दोनों ओर पेड़ को घेरकर एक लकड़ी की बाड़ बनी थी जिसमे लोहे के सरिये लगे थे। इन सरियों पर लाल धागे से बंधी ,सैकड़ों चीड़ की छोटी छोटी तख्तियाँ टँगी थीं। उनपर काली या लाल अमिट स्याही से कुछ कुछ लिखा हुआ था। कुछ पेड़ की टहनियों से तो कुछ तने के गिर्द बंधी थीं। गाइड बताती है —
” यह तख्तियां देख रहे हैं आप लोग ? यह एक विशेष पेड़ है। इसकी पत्तियाँ दिल के आकार की हैं। यह कभी नहीं झरता। पत्तियाँ छोटी छोटी व हलकी हैं इसलिए हमेशा हिलती रहती हैं इसलिए हम लोग इसको हँसता हुआ या प्रसन्न वृक्ष मानते हैं। ऐसा विशवास है कि इसपर देवता बसते हैं। इसकी डालियाँ काटना अनिष्टकारी माना जाता है। इसकी टहनियों पर बंधी तख्तियां लोगों की प्रार्थनाएं हैं। इसके नीचे माँगा हुआ वरदान जरूर मिलता है। यह जो बाड़ देख रहे हैं आप लोग ,यह हमारी सिटी कौंसिल ने बनवा दी है ताकि पवित्र पेड़ को नुक्सान न पहुंचे। यह तख्तियाँ इस वर्ष परीक्षा के बाद नए विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने की कामना करनेवाले विद्यार्थियों की हैं। वह लोग अपना नाम और पसंदीदा कोर्स या कॉलेज का नाम लिखकर टाँग देते हैं। इच्छा पूरी होने पर आकर धागा खोलते हैं और देवताओं को साकी आदि भेंट करते हैं। ”
मैं अपने पीपल की हृदयाकार पत्तियों को याद करती हूँ जो सदा झिलमिलाती और हंसती रहती हैं।
बढ़ रोये ,पीपल हँसे , नीम झरोखे खाय। इमली ऐसी चीज़ है जो धूल में गोते खाय।
पीपल को मौली बाँधने और वरदान माँगने की प्रथा भी हमारी है। अनेकों भारतियों ने धरम बदल लिया मगर यही धागा बांधकर मन्नत मांगना मज़ारो पर और ताज़ियों पर बरकरार रहा। गुजरात में तो देखा कि वट सावित्री के उपलक्ष्य में या जाने कौन से और पूजा में ,पूरी पूरी साड़ियां पेड़ों पर लटकाई हुई थीं। लखनऊ के इमामबाड़ों में लोग ताज़ियों को मौली या धागा बांधते हैं और मन्नत पूरी होने पर खोलने जाते हैं। हिन्दू मुस्लमान बराबर से। वैसे भी इमामबाड़ा। लक्षमण जी की गुफा पर बना है जो शेषनाग जी के अवतार थे। अतः पूजास्थल तो यह हिन्दुओं का रहा है सदियों से।
आइये जापान वापिस चलें। —-
क्रमशः…