गाइड बताती है कि हर वर्ष यहां एक मेला लगता है। जिस लम्बी सड़क से हम आये थे , उसके दोनों ओर मेज़ें आदि लगाकर अनेकों परिवार एवं संस्थाएं भोजन वितरित करती हैं। औसत रूप से इस मेले में दस लाख यात्री आते हैं। फिर भी कभी कोई कुचला या मरा नहीं। ना ही कोई घटना चोरी या उठाईगिरी की हुई। हमारे सहयात्री पूछते हैं कि किस धर्म की मान्यता अधिक है ? शिंटो मत की या बौद्ध धर्म की। गाइड कहती है कि शिंटो धर्म यद्यपि अधिक प्राचीन है और बौद्ध धर्म हमें चीन से मिला ,फिर भी दोनों में कोई तकरार नहीं है। जापान में लोगों के ह्रदय में दोनों का बराबर स्थान है। शादी ,जन्म ,वर्षगाँठ आदि शिंटो देवताओं की छत्रछाया में अच्छी मानी जाती है ,जबकि वृद्धावस्था , हारी बिमारी या मृत्यु के समय लोग बौद्ध उपदेशों व दर्शन का आश्रय लेते हैं।
शादी की बात चली तो उसने कहा कि जापान में जिसके तीन लडकियां हों वह पहले से ही दीवालिया मान लिया जाता है। बनिया भी उसको उधार नहीं देता क्योंकि लड़की के पिता को ही शादी का पूरा खर्चा उठाना पड़ता है। इस हिसाब से वह अधिकाधिक गरीब रही क्योकि उसकी तीन बहनें और हैं। और जापान जैसे आधुनिकतम देश में रहते हुए भी उसके पिता ने पुत्र पाने तक परिवार नियोजन नहीं किया।
मेरे पति जोर से मेरी बांह दबाते हैं ताकि मैं चुप रहूँ।
किसकी कथा सुना रही है यह स्त्री ,अपनी या मेरी ? मेरे पिता भी तो इंग्लैंड रिटर्न इंजीनियर थे। पांच बेटियां और एक पुत्र। भारतीय समाज में एक आम बात थी / है।
अगला पड़ाव था जापान का सुप्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर। सैकड़ों टन सोने से मढ़ा ,एक शांत झील के बीचों बीच खड़ा यह महात्मा बुद्ध का मंदिर कई सौ साल पुराना है। मगर सत्रहवीं शताब्दी में एक अनन्य भक्त ने इसको आग लगा दी। बौद्ध धर्म के कठोर नैतिक आदर्शों को उसने पांच वर्ष की अबोध आयु से आत्मसात किया था। घंटों ध्यान लगाने का अभ्यास किया था। आत्मा और शरीर की शुद्धि बनाये रखी थी। गुरु की अनन्य सेवा की थी। पांच वर्ष में भिक्षु रूप में उसको अपना पिता माना था और अपने प्रियजनों को छोड़ दिया था। परन्तु एक दिन पाया कि उसका वही गुरु रात्रि के अंधकार में गीशा स्त्रियों के संग भोग विलास करने के लिए आश्रम से चुपचाप सटक जाता था। उसकी आस्था और आत्मा दोनों टूट गईं और उसने आग लगा दी। ( क्या यही कारण भारत में बौद्ध धर्म के पतन का नहीं रहा ? ) जापान ने बौद्ध धर्म को ध्यान और एटीएम मंथन के साथ अपनी तरह से अपनाया है। इसको ज़ेन बुद्धिज़्म कहा जाता है।
मंदिर और झील के अंदर जाना वर्जित था अतः हम दूर से नमस्कार करके वापिस कोच में जा बैठे। गाइड बताने लगी — ” जैसे स्विट्ज़रलैंड में लोग माउंटेन हौप्पिंग के लिए जाते हैं ,या अमेरिका में स्टेट हौप्पिंग करते हैं ,वैसे ही जापान में टेम्पल हौप्पिंग की जाती है। यह तीर्थयात्रा है एक तरह से। भक्तगण अपनी मनोकामना मन में धारण कर एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक पदयात्रा करते फिरते हैं। या आधुनिक काल में कोच यात्रा करते हैं। आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि बहुत से तीर्थयात्री पूरे समय ज़मीन पर लेट लेट कर मंदिरों तक जाते हैं। ”
अब आप ही बताईये मैं कैसे चुप रहूँ ? मेरी बांह पर फिर से दबाव पड़ा है। मैं चुप मार जाती हूँ। हर बात पर चहकना- चपकाना ! ऊँह !! चुप बैठे सुनो। यह कोई स्नैप का खेल तो नहीं चल रहा है आखिर !!!
खाना खाने का पड़ाव आता है। वह बताती है कि जापान में स्त्रियां पहले पति और बच्चों को भोजन कराती हैं फिर स्वयं सबके बाद रसोई में बैठकर खाती हैं। ज़मीन पर आसन और चौंकी पर भोजन करने का रिवाज़ अभी तक जारी है। जापानी स्त्री के लिए पतिसेवा सर्वोपरि धर्म है। क्योकि जापान एक पुरुष प्रधान देश है। सं २००२ चल रहा है। अन्य सभी क्षेत्रों में जापान सबसे अग्रिम श्रेणी में आता है।
खाने की मेज पर केवल तीन जने बैठे हैं। तीसरा सहयात्री एक जर्मन है। साफ़ अंग्रेजी में वह हमें बताता है की वह तीस बरस से शाकाहारी भोजन ही करता है। क्योंकि उसकी शादी एक हिन्दू से हुई है। पतिदेव उससे पूछते हैं कि भारत में वह कहाँ से है। वह मुस्कुरा देता है। कहता है कि वह भारतीय न होकर एक जर्मन है। हम चकित हो जाते हैं। मैं पूछती हूँ कि क्या वह इस्कॉन सम्प्रदाय की है। वह फिर मुस्कुराता है और कहता है कि नहीं। वह अपनी स्वेच्छा से हिन्दू धर्म को स्वीकार कर बैठी है। इसके लिए उसको किसी दीक्षा की जरूरत नहीं है। मैं अभिभूत हो जाती हूँ। कहती हूँ कि हिन्दू धर्म एक स्वतन्त्र विचारों वाला धर्म है जिसमे धर्मांतरण नहीं किया जाता। इसके बाद वह मुझसे काश्मीर के विषय में पूछता है। मैं जितना जानती थी उसको बता दिया। उसको पता था कि सारस्वत धर्म काश्मीर से ही शुरू हुआ और कदाचित पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर कहना अनुचित न होगा कि आज के हिन्दू धर्म का अभ्युदय काश्मीर में हुआ। यह उसकी पत्नी का प्रिय विषय है और यदि वह उसको काश्मीर ले जा सका तो उसकी अंतिम साध पूरी हो जायेगी। मैं उसे काफी इतिहास कश्मीर का बताती हूँ मगर वहां के आधुनिक हालातों का जिक्र नहीं आने देती। वह अपने को धन्य समझेगा यदि पत्नी को काश्मीर की सैर करवा सका क्योंकि उसकी पत्नी शंकराचार्य के मंदिर और अमरनाथ जी के दर्शन करना चाहती है। मैं पूछती हूँ कि वह संग में जापान क्यों नहीं आई। वह बताता है कि वह एक ट्रेडिंग कंपनी की डायरेक्टर है और उसको छुट्टी नहीं मिली।
मेरे मन में एक दंश उठ रहा है। आधुनिक भारत की अंतराष्ट्रीय स्तर की महिला अफसर अपने धर्म और संस्कृति से विलग क्यों हो रही हैं ? पुरुषों से होड़ में जीत भी जाएंगी तो भी क्या वह पुरुष बन पाएंगी ? क्या इसका मूलभूत कारण हमारे पुरुष ही नहीं हैं ? जापान हो या जर्मनी ,सेवा करने वाली नारी सदा तत्पर रहती है परन्तु उसको आदर मिलता है। हमारे यहां जो भेदभाव स्त्रियों को सहना पड़ता है वह स्वयं पिता से ही शुरू होता है। भाई उसको पोसते हैं। पति सभी उपकारों को अपना अधिकार समझते हैं और अकृतग्य बने रहते हैं और अंत में पुत्र की बारी आती है तो वह कर्तव्य से मुंह मोड़ लेते हैं।
क्रमशः —