गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

.आदत ये पुरानी है कमजर्फ जमाने की ।।
करता है सदा कोशिश उठते को गिराने की ।।
डरते हैं उतरने से चढते हुए दरिया में..
करते हैं वही बातें दरिया को सुखाने की ।।
सच बात छुपाने से छुपती  है कहाँ प्यारे..
कोशिश फिजूल है सब बातों को बनाने की ।।
अबला नहीं हो सबला क्या कुछ न कर सकोगी..
छोंडो भी अब ये आदत आँसू को बहाने की ।।
उलझोगे अगर इनमें उलझे ही रहोगे तुम..
सुन लो औ गुजर जाओ बातें हैं जमाने की ।।
इक तीर से ये दो दो करती है शिकार अक्सर..
ये अहले सियासत की खूबी है निशाने की ।।
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— समीर द्विवेदी नितान्त

समीर द्विवेदी नितान्त

कन्नौज, उत्तर प्रदेश