आधे अधूरे अरमान
अरमानों की चाह में दौड़ी हुं बहुत
इश्क की भी तो थी चाहत गहरी
चाहतों में घीरी हुई चली भी हुं बहुत
न उठा पाई चाहतों के बोझ को
चलते चलते थकी थी भी बहुत
भूली थी अपनी हस्ति चाहतों की चाह में
मेहनतों के आलम में वक्त की कसौटियों ने
लीये है इम्तहान जो नहीं थे
आसान
खुद डूब के भी न डूबने दिया कारवां
आए हुए उन
अश्कों को तो जज्ब्ब कर गई अखियां
आहे भी तो न निकली लिहाज से सिले होटों से
न निकले चाहे दिल के अरमान
जिंदगी गुजरती चली गई
न था माझी और न ही कोई पतवार
बिन पतवार ही खेई थी जो नैया
क्या
आके किनारे तक भी डूब जायेगी
— जयश्री बिरमी