ऑनलाइन साहित्यिक परिचर्चा सम्पन्न
मंडला- पत्र-पत्रिकाओं अथवा पुस्तकों में जो गीत या साहित्य प्रकाशित होते हैं, उसमें हृदय की अभिव्यक्ति होती है l गीतों में जीवन और समाज की जीवंत तस्वीर होती है और तब वह साहित्य कहलाता है। वही गीत जब शब्दों की अभिव्यक्ति देते हुए फिल्मों में सुर और ताल के साथ प्रस्तुत होता है, तब वह गैर साहित्यिक क्यों और कैसे हो जाता है ? सुर और ताल के साथ शब्दों में अभिव्यक्त फिल्मी गीत भी साहित्य है !”
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में फेसबुक के ” अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका ” के पेज पर ” हेलो फेसबुक संगीत सम्मेलन ” एवं ” मेरी पसंद : आपके संग ” का ऑनलाइन संचालन करते हुए सम्मेलन के संयोजक सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किये।
” क्या फिल्मी गीत भी साहित्य है ?” इस विषय पर अपनी डायरी प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि -” तमाम कोशिशों के बावजूद गुलजार,नीरज, बच्चन, कैफ अज़ीमाबादी, प्रदीप, संतोष आनंद,मजरूह सुल्तानपुरी जैसे तमाम कवियों को साहित्य से अलग नहीं किया जा सका है ! ये लोग अपनी छवि आज भी साहित्य में बनाए हुए हैं और भविष्य में भी इनकी छवि ऐसी ही बनी रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं ! “
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में राज प्रिया रानी ने कहा कि -” पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों की अपेक्षा फिल्मों के माध्यम से अभिव्यक्त साहित्य आम पाठकों के करीब पहुंचता है और व्यापक प्रभाव डालता है!”
मुख्य अतिथि मधुरेश नारायण ने कहा कि -” नीरज, ख़य्याम, गुलज़ार, कैफ अजीमाबादी, मजरूह सुल्तानपुरी आदि द्वारा लिखे गए गीत और उनकी गजलें तथा मन्नू भंडारी, फणीश्वर नाथ रेणु, प्रेमचंद जैसे कथाकार की कहानियों पर पर बनी फिल्में इस बात का प्रमाण हैं कि फिल्मी गीत या कहानी भी साहित्य है। फिल्मों के माध्यम से कई कवि और कथाकार अमर हो गए !”
विशिष्ट अतिथि प्रो(डॉ).शरद नारायण खरे (म.प्र.)ने कहा कि -” प्राय: फिल्मी गीत साहित्यिक प्रकृति से परिपूर्ण होते हैं । पुराने फिल्मी गीत नवरस से तो परिपूर्ण होते ही थे,साहित्य की गहराई को लेकर चलते थे और सीधे श्रोताओं के दिल में उतर जाते थे।गीतों में कथ्य, शिल्प, लय,भाव, प्रवाह,वज़न सभी कुछ होता था।देशभक्ति से लेकर भक्ति,श्रंगार,रिश्ते-नातों,प् रकृति चित्रण,वात्सल्य हर तरह के फिल्मी गीत अमर थाती के रूप में आज भी प्रभावित करते हैं।पर यह ज़रूर है कि आज के फिल्मी गीत प्राय: साहित्य से हट रहे हैं । “
प्रियंका श्रीवास्तव शुभ्र ने कहा कि -” ये सोचिए कि किसी गाने के बोल जो कहानी के किरदार को केंद्र में रख कर लिखे जा रहे हैं, वे साहित्य से अलग कैसे हुए।समाज को देखने के लिए हम जिस आँख का प्रयोग करते हैं वही हमारा साहित्य है। तभी तो हम कहते हैं साहित्य समाज का आइना है।
फिल्मों में गीत का प्रयोग या तो सिर्फ मनोरंजन के लिए होता है या पटकथा को आगे बढ़ाने में सहायक के रूप में होता है। दोनों ही स्थितियों में वह पटकथा का एक भाग होता है, जो किरदार के व्यक्तित्व को प्रभावशाली या कमजोर करने के लिए प्रयुक्त होता है।दोनों ही स्थितियों में साहित्य का लालित्य बना रहता है !”
विचार गोष्ठी के साथ-साथ फिल्मी गीतों का रंगारंग कार्यक्रम भी चलता रहा । डॉ. शरद नारायण खरे (म. प्र. )ने -” दर्पण को देखा तूने जब-जब किया सिंगार “/ मुकेश कुमार ठाकुर (मध्य प्रदेश ) ने -” डम डम डिगा डिगा, मौसम भींगा भींगा “/सिद्धेश्वर ने “फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो !”/डॉ. नीतू कुमारी नवगीत ने -” जिस धरा पर हमने जन्म लिया, उस धारा को स्वर्ग बनाएंगे ” गीतों को मधुर स्वर दिया ! इसके साथ मीना कुमारी परिहार ने फिल्मी गीत की धुन पर नृत्य भी प्रस्तुत किया। अपूर्व कुमार ने पाकीजा फिल्म का एक गीत अपने स्वर में गाया ” मौसम है आशियाना “
” मेरी पसंद, आपके संग ” के तहत विभा रानी श्रीवास्तव की हाइकु, बलराम अग्रवाल की लघुकथा ” अपने-अपने आग्रह “और समीर परिमल की एक ग़ज़ल -” तुम जो बदले तो जमाने को बदलते देखा , भींगी पलकों पर समंदर को मचलते देखा “की सशक्त प्रस्तुति दी।
इस कार्यक्रम में डॉ. संतोष मालवीय, ऋचा वर्मा, डॉ. सुशील कुमार, दुर्गेश मोहन,दिलीप कुमार आदि की भी भागीदारी रहीl
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