यात्रा वृत्तान्त

मेरी जापान यात्रा – 6

शाम को साढ़े चार बजे हम सब  शहर घूमते हुए वापिस जा रहे हैं।  हमारी गाइड बताती है कि जापान क्षेत्रफल में एक बेहद छोटा सा देश है।  इसलिए  शहरों को सुनियोजित करना बहुत आवश्यक है।  शहरों में बसें और ट्रेनें चलती हैं।  ट्रेनों में सफर करनेवाले बहुत सुबह अपने घरों से निकल जाते हैं।  क्योंकि सभी व्यापारिक संस्थाएं शहर से बाहर बना दी गयी हैं।  मंदिरों के परिसर काफी हद तक सुरक्षित और सीमित कर दिए गए हैं। यद्यपि मंदिरों के अपने अधिकार क्षेत्र रहे हैं मगर स्कूलों और अस्पतालों जैसी अधिक उपयोगी संस्थाओं के महत्त्व को देखते हुए इनसे यह ज़मीनें सरकार ने ले ली हैं।  फिर भी इनकी व्यवस्था शहर को उत्सव आदि के लिए और नागरिकों को ताज़ी हवा आदि देने के लिए सदा निरीक्षण में रहती है।  जैसे इंग्लैंड और पेरिस में जगह जगह कॉमन ज़मीन बनी हुई है।हाँ शहर से बाहर बने हुए मंदिरों को वैसा ही रखा गया है।

    सुबह का ‘ रश ऑवर ‘ चार बजे से शुरू हो जाता है।  यदि भागमभाग और उतावली कभी किसी जापानी व्यक्ति की देखनी हो तो सुबह स्टेशन पर खड़े हो जाओ। इस समय यदि इनका बस चले तो आगे वाले के  सर पर पाँव रखकर यह गाड़ी में घुसने की कोशिश भी कर सकते हैं। यदि तुम अंग्रेज हो और तुमको मैड रश का मतलब समझना है तो यहीं समझ पाओगे।  शिक्षा संस्थानों में दो शिफ्ट लगती हैं मगर पांच बजे के बाद ,हस्तकौशल ,अतिरिक्त सहायता , वयस्कों की पढ़ाई आदि की व्यवस्था इन्हीं संस्थानों में की जाती है।  इसके बाद hमारी कोच एक गोलाकार  पुल   पर चढने लगती है।  और गोल गोल घूमती हुई जाने कितनी मंज़िलें ऊपर तक जाती है। कमाल का ढांचा है यह।  शहर में ट्रैफिक को साधने के लिए बनाया गया है।  अब तो बहुत जगह आपको ऐसे उलझे रास्ते मिल जाएंगे मगर जापान ने यह सबसे पहले ईज़ाद किया था।  इसको स्पघेटी जंक्शन कहा जाता है।  मैं इसे हिंदी में जलेबी जंक्शन कहती हूँ।

          गाइड हुकुम देती है कि मित्रों अपनी गर्दन और दृष्टि दाहिनी तरफ रखिए। हमारे देश का सबसे महत्वपूर्ण स्थल आनेवाला है। इसको हम ” दी गोल्डन गेट ” कहते हैं जैसे इण्डिया में इण्डिया गेट है। पेरिस में विक्ट्री गेट है वैसे ही हमारा गोल्डन गेट आनेवाला है। सब कहना मानते हैं। कैमरे वाले  तैयार हो जाते हैं। कोच चौथी मंज़िल पर है।  ठीक सड़क से सटा  हुआ सुनहरे पीले रंग का विशालकाय मैक्डोनाल्ड का  ” एम” दिखाई देता है।  सबकी  निराशा  वाली हँसी का फव्वारा छूटता है।  वह कहती है कि वॉर से पहले हमारा अपना स्ट्रीट फ़ूड होता था मगर अब यही सबसे अधिक प्रधान है।
            उसकी अनवरत कमेंट्री चलती जा रही है।  पतिदेव ऊँघने लगे हैं। तभी वह आगाह करती है कि खिड़कियों से बाहर देखते रहो।  हम आखिरी  मंज़िल पर हैं। यहां से टोकियो का समूचा नज़ारा दीखता है।  इसके बाद हम लोग विदा लेंगे।  जो लोग अपने होटल तक जाना चाहें बैठे रहें। जिनको अभी और घूमना है ,या अपने मतलब का भोजन ढूंढना है वह लोग बाजार आने पर उतर सकते हैं।  इस समय ट्रेनों में कोई भीड़ नहीं होती बसें भी सस्ती हैं।  यात्रा का नक्शा बस के अगले भाग में रखा है।  अपनी भाषा देखकर उठा लो।  वगैरह।
             हम बाजार में उतर गए।  कहीं भोजन मिलना चाहिए।  यात्रा वाले पत्रे में भोजनालय आदि लिखे हैं।  एक भारतीय नाम दिख जाता है।  ढूंढ ढांढकर हम पहुँच ही जाते हैं। अंदर एक पहाड़ी लड़का है। मालिक बांग्ला देशी है।  बंगाली बहुत आते हैं।  उसने अभी अभी आलू की सब्जी बनाई है जो हम नान के साथ खाते हैं।  सब्जी लाजवाब बनी थी।  लड़का बहुत खुश हो जाता है।  वह यहां पढ़ने आया था नेपाल से।  हम फिर से आने का वादा करके विदा लेते हैं। तभी मालिक आ जाता है और पैसे लेने से मना कर देता है। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते।
             टोक्यो में अभी एक दिन और रहना है।  हम एक और ट्रिप का इंतजाम करते हैं।  इस बार हमारी निर्देशिका हमें शहर क्र पुराने भागों की और फिर नवीनतम अट्टालिकाओं के बने बाज़ार की सैर करवाती है।  जापान में कई नए फ्लाई -ओवर बनाये गए हैं जिनको बेहद सुंदरता से सजाया गया है।  इनकी दीवारों पर बेलें चढ़ी हुई हैं ,तो सड़क किनारे की जगत पर फूलों की क्यारियां सजी हुई हैं।  लगता नहीं की यहां तेज गति से भागती  गाड़ियां दौड़  रही हैं। वरन लगता है किसी बागीचे की सैर को निकले हैं।  हमारा गंतव्य है टोक्यो का प्राचीन राजमहल।  यह नदी के किनारे बना सात खण्डों वाला एक किला जैसा है. दसियों एकर  बागीचा पार करने के बाद मुख्य अट्टालिका के दर्शन हुए। किले की हद में घुसते ही एक तरफ छोटे छोटे दरवाज़ों वाली कोठरियों की कतार नज़र आती है।  वहां का रखवाला एक राजसी वर्दी धारी सरदार है।  हमें देखकर मुस्कुरा देता है।  उसका क़द साढ़े छह फ़ीट लगता था।  उसने बताया कि वह पिछली दो पीढ़ियों से इस द्वार का संरक्षक रहा है।  जापान में सुभाष चंद्र बोस के समय से अनेक सिख रहते आये हैं। उसका परिवार उन्हीं में से एक है।  मेरे पति पंजाबी में उसको बताते हैं की इंग्लैंड की महारानी के महल में भी सिखों को सुरक्षा की नौकरी पर रखा जाता है।  वह सुनकर खुश हो जाता है।  हमारी निर्देशिका की लाल पीली छतरी ऊपर तन गयी है।  हम उसके करीब आ जाते हैं।  एक पंक्ति से बने छोटे छोटे बैरकों की ओर इशारा करके वह कहती है कि यह बैरक संभवतः पांच सौ साल पहले बनाये गए  इनमे राजा का रक्षाबल रहता था।  गौर से देखिये इन दरवाज़ों को कि यह कितने छोटे हैं।  ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे जापानी मूल रूप से पांच फुट से अधिक लम्बे नहीं होते थे मगर अब मैक्डोनाल्ड के बर्गर खाकर हमारी नस्ल लम्बी होने लगी है।  केवल पिछले तीस वर्षों में यह बदलाव आ गया है अगले तीस वर्षों में हमारे जवान इन सरदार जी के जैसे लगने लगेंगे।
           महल के अंदर प्रवेश मना है।  बाहर से ही वह  बताती है कि केवल कुछ वर्ष पूर्व तक राजा यहीं रहता था।  इसमें कई सौ कमरे हैं क्योंकि उसके ४०० रानियाँ थीं। मालूम नहीं बच्चे कितने थे।  सबके नाम रखते रखते हमारी डिक्शनरी चुक जाती होगी।  वह अपने को मुग़ल बादशाह से अधिक समझता था।
यह सुनकर मैं हंस पडी। मैंने बताया की मुग़ल बादशाह अकबर के पांच हज़ार रानियां थीं और दिल्ली के लाल किले में केवल तीन सौ कमरे हैं।   सहयात्री जोर से ठहाका लगाते हैं।  कोई पूछता है ,और उसके बच्चे ? मैं ने बताया ,केवल एक। तिसपर किसी  विदेशी भाषा में किसी ने फब्ती कसी और एक फिस्स सी हंसी सुनाई दी।  संगत आगे बढ़ती है।  बाहर से ही राजा का पुस्तकालय हम देख पाते हैं। एक अंग्रेज व्यंग से पूछता है ,उसको इन किताबों को पढ़ने की फुर्सत मिलती थी क्या ?
  वह बाज़ारों से ज़रा हटकर बने गीशा क्षेत्र को भी इंगित करती है और जापान की देवदासी प्रथा पर प्रकाश डालती है। कालांतर में यह जगह  बदनाम हो गयी।  क्योंकि देवताओं और मंदिरों की साख बाज़ारवाद ने ख़तम कर दी।  उन्नीसवीं सदी के औद्योगिक बिस्फोट ने बड़े सेठों को जन्म दिया। बीसवीं सदी में जापान एक अति व्यस्त निर्माता देश बन गया।  यही नहीं इसके सम्मान की ख्याति से इंग्लैंड और अमेरिका वाले जलने लगे।  नए पैसे वाले हों या पुराने खानदानी सेठ ,सुन्दर से सुन्दर गीशा स्त्री को अपने खासगाह में रखना उनकी इज़्ज़त के लिए आवश्यक था।  ( कुछ ऐसे ही शौक भारत के रईसों ने भी पाल रखे थे। फैशन इतना वैश्विक क्यों होता है हर युग में ? )
हम आज अपने घर से लाये हुए परांठे खा लेंगे।  चलते समय काम वाली ने प्रेम से बीस परांठे मेथी के बना दिए थे।  होटल वाली स्त्री अपने माइक्रो में गरम कर लाती है।  फिर कहती है कि यदि हम कुछ अपनी तरह का बनाना चाहें तो हम उसकी व्यक्तिगत रसोई में बना सकते हैं।  हम झेंपते हुए कहते हैं कि हम विशुद्ध शाकाहारी हैं। तिसपर वह हमें बताती है कि वह भी शुद्ध शाकाहारी बौद्ध धर्म वाली स्त्री है।  नहाकर पूजा आदि करके ही वह अन्न ग्रहण करती है।  हमारे चेहरे पर सौ प्रश्नो के हँसिये उग आये हैं। वह गर्व से बताती है की वह मंचूरिया से है जो विश्व युद्ध से पहले अधिकतर बौद्ध धर्म को मानता था। १९४५ के बाद वह लोग जापान में आकर बस गए।  वह इस विषय में अधिक नहीं बोलना चाहती। एक लम्बी सांस लेती है और कहती है कि वह हमको खिचड़ी बनाकर दे सकती है।  हम कहते हैं  कि अभी का काम चल जायेगा। धन्यवाद कहकर हम अपने कमरे में आ जाते हैं। मेरे भारत तुम्हें कहाँ कहाँ  ना  ढूँढूँ ?
           रिसेप्शन में एक ओर वाशिंग मशीन लगी है एक युवक होटल वाली ड्रेसिंग गाउन पहने अखबार बांच रहा है।  पतिदेव उससे पूछते हैं क्या तुम भीग गए थे ? वह कहता है की वह अपने रक सैक में केवल एक दो जोड़े जांघिये और बनियान उठाता है। ऊपर पहनने के केवल एक जोड़ कपडे ही हैं उसके पास ताकि सामान की उलझन ही न हो।  हर जगह वह कमीज आदि धो लेता है और फिर उन्हीं को चढ़ा लेता है।  उसका उद्देश्य विश्व भ्रमण है।
यह  भी एक नया पाठ था मुझ जैसी चलती फिरती बुटीक के लिए।  कल से हमारी बुलेट ट्रेन की टिकट शुरू हो जायेगी।  हमारा पहला शहर होगा हिरोशिमा।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]