मन की सीमा
मन की सीमा कौन जाने
ले जाती है क्षितिज के पार!
मन की भटकन को कौन जाने
ले जाती है सूनसान किनारे!
मन की दुनिया को कौन जाने
जितनी रंगी उतनी वीरान!
मन की उड़ान को कौन जाने
ले जाती है अनन्त आकाश!
मन की यात्रा को कौन जाने
ले जाती है अनजानी राहें!
मन की खेल को कौन जाने
हरपल करती है नये तमाशे
मन की चाहतों को कौन जाने
ढूंढता है मुक्ति के बहाने!
— विभा कुमारी “नीरजा”