/ क्या लिखूँ मैं! /
अगर मैं चलता हूँ तो
कुछ लोग हंसने लगे,
रूकता हूँ कहीं अशक्त तो
रास्ते में पत्थर फेंकने लगे
यदि मैं आवाज लेता हूँ तो
उस बोली में गलती ढूँढ़कर
मेरे साथ अपहास करने लगे
चुपके से रहता हूँ तो
बाकी लोग नादान कहने लगे।
विचारों के खंभ पर मैं
समाज का एक रूप हूँ
सत्य की खोज में चलते
दूर देश का पथिक हूँ
जानता हूँ चिंतन में तैरना
साँस लेकर निकलता हूँ बाहर
कभी – कभार बाढ़ सी आते हैं
दिल में ये मेरे अक्षर
आवेग के उमंग में बह जाना
निश्चलता की समाधि में मिलना
आम बात हो गयी हैं मेरी
अलग नहीं हूँ मैं किसीसे
अलग नहीं है जग मुझसे
काल चक्र की गति में
सबकी गति निश्चित सत्य है
निंदा – स्तुति, मान – अपमान
धर्म – दर्शन, कर्म – कार्य
भेद – विभेद सामाजिक जीवन में
मन की मर्म वस्तुएँ हैं
स्वार्थमय आवरण को पारकर
समता के तल पर देखें तो
सभी अपने ही लगते हैं।