मन के मीत
मेरे मन के मीत
मेरे मन की थी कल्पना
कोई भोली भाली अल्पना
आती है मुझे बार बार सपना
बाहों में भरकर उसको अपना बना लेते हो
मेरे मन के मीत
मुझे तुम बहुत याद आते हो
सपनों में क्यूँ सताया करते हो
रोज रोज मिलने का वादा करते हो
अपना वादा रोज तोड़कर मुझे रुलाते हो
मेरे मन के मीत
जब तुमसे मेरा नेह हुआ है
मन मेरे वश में नहीं तेरा हो गया है
तुम बिन मेरी कोई खुशियां नहीं है
याद आते ही मेरे आंखों में भर जाते हो
मेरे मन के मीत
तुम मेरे जीवन की संगिनी हो
हे प्रिय मेरे नैनों में तुम समाए हो
इसलिये बारम्बार मेरी नींद उड़ाते हो
मन मे बसे मनमीत तुम बहुत याद आते हो
— राजेन्द्र कुमार पाण्डेय “राज”