मेरे पास जबरा नहीं है
‘पूस की रात’
कटे कैसे ?
न मेरे पास जबरा है,
न तो मुन्नी !
एक ‘कम्बल’ है भी
तो बकाए के।
जिनके पैसे माँगने
सहना भी तो आ गए
आज ही !
आज एन्टी-प्रेमचंद जैसे
कथाकार की जरूरत है,
जो ‘पूस का दिन’ लिखे !
पूस के इन दिनों
जो कड़ाके की
ठंढ पड़ रही,
इसे बिल्कुल ही
महसूस कर रहा हूँ !
प्यार एक ऐसा शब्द,
जिनका पहला वर्ण ही
आधा हो, अधूरा हो !
वो ताउम्र
साथ चलने के लिए
पूर्ण कैसे हो सकती है ?
हम आईना नहीं देखते,
तो क्या हुआ ?
लेकिन एक वो ही है,
जो सच के साथ है !
बाकी भ्रामक है
यानी सब्जबाग लिए !