लघुकथा – भिखारी
हम कुछ मित्र नौकरी करने के लिए प्रति दिन ट्रेन पर लगभग 60 किलोमीटर का सफर तय करके दूसरे शहर जाते थे। सुबह ट्रेन पर जाना तथा रात को वापिस आ जाना। ट्रेन में कई तरह के मंगते, साधु इत्यादि भी आते-जाते। कुछ तो रोज रोज़ ही मिलते तथा मित्र-दोस्तों की तरह मिलते। परिचित होने के कारण एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे।
कई वर्षों से एक वृद्ध आयु का अंधा (सूरदास) भिखारी जिस के साथ एक नवयुवक लड़का उसकी डंगोरी (छड़ि) पकड़कर उसको रास्ता बताता और तरह-तरह के करूणामयी संवाद बोलता। जैसे आंखें बड़ी अमूल्य दात हैं लोगो। अंधे को दान देने वाले का भला ही भली होता है। माई-बाप कोई पैसा, कोई रूपईया, परमात्मा सब का भला करे इत्यादि। नव-विवाहित जोड़ियों, नवयुवक लड़के-लड़कियों को वह जज़्वाती करने में बहुत माहिर था। बुजुर्गों से भी वह पैसे निकलवा लेता। बात यह कि वह अपनी लच्छेदार भाषा में दर्द, रहम तथा तरस लाने में बड़ा माहिर था। अंधा भिखारी कम बोलता परन्तु उस का शायद लड़का घोटे लगाए कुछ वाक्य को तेज़ गति से बोलता चला जाता।
कई दिनों से वह भिखारी तथा लड़का ट्रेन पर नज़र नहीं थे आते परन्तु हम सब मित्र उनके बारे में बातें करते रहते कि कुशल क्षेम ही हों या उन्होंने अपना रूट बदल लिया है या वे कहीं ओर चले गए हैं। हम तरह-तरह उनके बारे में अनुमान लगाते परन्तु उनका कोई पता न लगता। कुछ माह के बाद मैं नौकरी वाले शहर के बस स्टैंड पर गया। मैंने किसी अनिवार्य काम के लिए बस लेनी थी। तो मैंने अचानक देखा कि भिखारी का वह लड़का चाकलेट इत्यादि बेच रहा था। मैंने उसको पहचान लिया था, परन्तु वह भी मुझे देखकर हंसने लगा। उसने मुझे नमस्कार की और मैंने भी। मैंने उस लड़के को जिज्ञासा से पूछा, यार, क्या बात है? आप अब ट्रेन पर नज़र नहीं आते, वह भिखारी किधर गया, तू अब चाकलेट बेच रहा है, क्या बात है?य्
उस लड़के ने हंसते और मुरझाते हुए अवसोस भरी आवाज़ में कहा, भाई साहिब, क्या बताऊं, मेरा तो रोज़गार ही बंद हो गया है, वह भिखारी बेचारा मर गया है।
परन्तु तेरा रोज़गार कैसे बंद हो गया? हम तो तुझे उसका लड़का समझते थे।
‘नहीं, भाई साहिब, मैं उसका लड़का नहीं हूँ, मैं तो उसके साथ दिहाड़ी पर जाता था। उससे मैं सौ रूपये दिहाड़ी लेता था।’
— बलविन्दर ‘बालम’