जन्मदिन के अमृतोत्सव की बधाई, कुलवंत : गुरमैल
प्रिय कुलवंत,
”मेहरबां लिखूं हसीना लिखूं या दिलरुबा लिखूं
हैरान हूँ कि आपको इस खत में क्या लिखूं!”
अब यह लिखना कि तुम मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर नाराज़ न होना, इस उम्र में हंसी की बात नहीं होगी तो और क्या होगी! क्योंकि वह ज़माना बहुत पीछे छूट गया और ये बातें तो अब हमारे पोते, दोहते और दोहती के दिनों के हैं!! फिर भी हर साल तुम्हारे जन्म दिन पर वह समय तो याद आ ही जाता है जब शादी से पहले हम एक दूसरे को प्रेम पत्र लिखा करते थे. सारे-के-सारे खत हम ने संभाल कर तो रखे हुए हैं, मगर पढ़ने को अब हिचकचाहट-सी होती है, इस लिए वे उसी तरह पड़े हुए हैं.
कुलवंत! 25 दिसंबर के दिन जब सारी दुनिया येसू मसीह का जन्मदिन मनाती है, अपने घर में हम सब मिल-जुलकर तुम्हारा जन्मदिन मनाते हैं. सुबह उठते ही हम जन्मदिन की बधाई देकर गले मिलते हैं, कुछ बातें करते हैं और दिन भर का काम शुरु हो जाता है. क्रिसमस कुकिंग होती है और शाम को बच्चे केक ले आते हैं. फिर बेटा-बहू, दोनों पोते और मैं मिल कर तुमको हैप्पी बर्थ डे कह कर केक की मोमबत्तियां सजाकर जन्मदिन मनाते हैं. फिर पर्यावरण में प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए हल्के-फुल्के पटाखे जलाते हैं और इस के बाद खान-पान में मसरूफ हो जाते हैं. यह रुटीन हर साल होता है और बेटियां अपने-अपने सुसराल के घरों में अपने परिवार के साथ खुशियां मनाती हैं.
आज तुम 75 साल की हो गई हो, मैं तुम्हें 75 वें जन्म दिन की मुबारकवाद देता हूँ. तुम्हारे जन्मदिन पर मैंने कभी खत नहीं लिखा क्योंकि इस की जरूरत ही नहीं होती. इस दफा यह खत इस लिए लिखा है कि कुछ मन की बात कर लूं.
कभी-कभी मैं सोचता हूँ, पुराने दिन कितने अच्छे होते थे. 1955 में हम दोनों के दादाओं ने तुम्हारे कुएं पर बैठे-बैठे हमारा रिश्ता पक्का कर दिया था. तब तू महज़ 9 साल की थी और मैं बारह साल का. हमारी शादी हुई 1967 में. इन बातों को कमाल नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे! मां-बाप की इजाजत ले कर शादी से कुछ महीने पहले हमने एक दूसरे को पत्र लिखने शुरु किये और शादी के कुछ हफ्ते पहले मां-बाप की इजाजत ले कर आपस में मिलने भी लगे. इससे हम नज़दीक तो आये ही पर सारी ज़िंदगी हम दोस्तों की तरह हो गए. पति-पत्नी तो हम हैं ही, लेकिन इस से ज़्यादा हमने दोस्त बन कर ज़िंदगी व्यतीत की है और अब भी उसी तरह कर रहे हैं. अब मुझे शारीरिक कष्ट है और तू मुझे कष्ट महसूस होने नहीं देती. जितनी ज़हमत मेरे लिए तुम उठा रही हो, अगर धन्यवाद कहूं तो तुम मुझे कुछ कहने नहीं दोगी, इस लिए कुछ कहता नहीं हूँ. पर तुम मेरी खामोशी से ही महसूस कर लेती हो. आज के कुछ साहित्यकार यह बातें भी करने लगे हैं कि जब हम बहुत बूढ़े हो जाते हैं, तो पति-पत्नी एक दूसरे के लिए मां-बाप ही बन जाते हैं. इसमें मुझे कुछ सच्चाई भी लगती है, क्योंकि दोनों इस सोच के धारक हो जाते हैं कि अपने बच्चों की तरह मेरे साथी को कोई तकलीफ न पहुंचे. तुम मेरे लिए इतना करती हो, कि कभी-कभी मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि तुझे कोई तकलीफ न पहुंचे. ये मेरे मन की बातें हैं जो बोल कर बता नहीं सकता. मैं तो वैसे भी बोल नहीं सकता, मगर बोल सकता होता तब भी कुछ कह नहीं पाता. उन दिनों जब मैं टूट चुका था और सोफे पर उदास बैठा सोचता रहता था, तो एक दिन तू ने ही मेरे हाथ में राइटिंग पैड और पेन पकड़ाकर कहा था कि रेडियो के लिए मैं कोई कहानी लिखूं जो मुझे बिलकुल लिखनी नहीं आती थी. कई दिन तक सोच-सोचकर कोई कहानी लिख दी और तू ने रेडियो को पोस्ट कर दी. जब वह कहानी रेडियो की प्रेज़ेंटर द्वारा पढ़ी गयी तो लोगों ने अच्छे-अच्छे कॉमेंट्स दिए. इस के बाद रेडियो को कहानी भेजने का सिलसिला शुरु हो गया. इस शुरुआत के साथ ही अचानक नवभारत टाइम्स में लीला तिवानी बहन जी के साथ उन के एक ब्लॉग “आज का श्रवणकुमार” पर मेरी एक टिप्पणी से सम्पर्क आरम्भ हो गया जो शायद मार्च 2014 था.
लीला बहन के साथ सम्पर्क क्या हुआ, उन्होंने मुझे युवा सुघोष पत्रिका जो आज जय विजय के नाम से जानी जाती है के साथ जोड़ दिया, जिसमें मैंने इतना कुछ पोस्ट किया कि सोच कर मुझे खुद को हैरानी होती है कि यह सब कैसे हो गया, जबकि मैं तो लिखना जानता ही नहीं था. आज तुम्हारे बर्थडे पर तुम्हारा यही धन्यवाद करने के लिए मैंने यह पत्र लिखा है, क्योंकि तुम ने ही मेरे हाथ में पेन-पेपर पकड़ाया था. जहां मैं तुम्हें 75 वें जन्म दिन की बधाई कहता हूं, वहीं कुछ लिखकर तुम्हारा धन्यवाद भी करना चाहता हूं, कि तुमने मुझे डिप्रेशन में पड़ने से बचाया. एक बार फिर “Wishing you a day filled with happiness and a year filled with joy. Happy birthday!”
गुरमेल
कुलवंत कौर जी, आपको सपरिवार जन्मदिन की कोटिशः बधाइयां और शुभकामनाएं.
कुलवंत जी आपके जन्मदिन के लिए एक गीत-
मन में अनहद बाजे जन्मदिन तेरा है
लीला बहन, कुलवंत की क्या बात बताऊं! हमारे साथ का घर एक गोरी का है , हम पिछले 35 वर्ष से पड़ोसी हैं. कुलवंत ने उस को बहिन बनाया हुआ है. कभी उस से नए प्लांट ले आती है, कभी उस को अपने गार्डन से उखाड़ कर दे आती है. पढ़ने का उस को कोई ख़ास शौक नहीं है , हां कभी-कभी पंजाबी का अखबार पढ़ लेती है और कभी-कभी कोई पंजाबी का नानक सिंह का या कोई दिलचस्प नावल पढ़ लेती है लेकिन, उस के और शौक बहुत हैं. कभी चैन से बैठ नहीं सकती. निटिंग का शौक इतना है कि हर वक्त सलाइयां उसके हाथ में रहती हैं. किसी के घर बेबी आना हो तो बुनना शुरू कर देती है. जितने रिश्तेदार दोस्त हैं, उन के बच्चों के लिए बनाये हैं. उसकी जितनी बीमार सहेलियां हैं, उन के पास जाती है. दो हफ्ते पहले उस की एक सहेली है जो पार्किन्सन रोग से पीड़ित है, उस के लिए दो कार्डिगन बुने और बेटे को लेकर उस के घर गई और उस को दिए. वह इतनी खुश हुई कि, वह पैसे देने लगी तो कुलवंत ने कहा,आप ठीक हो जाएं, मुझे पैसे मिल गए.” हमदर्दी उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है.