ग़ज़ल
दो कुलों की लाज है कंधों पर लेकिन कोई घर नहीं,
कितनी लाचार हूँ मैं, बेदर्द जमाने को कोई खबर नहीं।
रीति रिवाजों की जंजीरों में जकड़े रखा गया मुझको,
देखो! उस ईश्वर का भी माना किसी ने कोई डर नहीं।
हर पल हर घड़ी खेला गया मेरी भावनाओं से यहाँ,
देह को मेरी नोच डाला गया फिर भी कोई सब्र नहीं।
जितनी पाबंदियां लगा सके सब लगा दी मुझ पर,
क्या बीत रही है मुझ अभागन पर कोई फिक्र नहीं।
हैं ना कमाल! हर बात का दोष दिया गया मुझको,
एक मैं हूँ जिस पर किसी बात का कोई असर नहीं।
अपनी जड़ों से दूर हो नहीं सकी “सुलक्षणा”
चाहकर भी,
गमों को सहकर भी उसने चुनी और कोई डगर नहीं।
©️®️ डॉ सुलक्षणा