त्याग
आज स्निग्धा बहुत खुश थी. उसने त्याग का निश्चय जो कर लिया था.
उसका नाम भले ही स्निग्धा था, लेकिन स्नेहिलता उससे कोसों दूर थी.
”अपनी आलोचना यह तनिक भी नहीं सुन-सह सकती.” उसके जाननेवाले कहते थे.
खुद स्निग्धा को भी अपनी इस कमजोरी का पता था और वह शिद्दत से इससे पीछा छुड़ाना चाहती थी. बस उसे अवसर की तलाश थी.
अवसर से पहले उसका एक सच्चाई से सामना हुआ.
रोटीमेकर पर रोटियां सेकने के बाद उसे बंद करने के लिए Off का विकल्प चाहिए होता है. यह विकल्प तभी आता है, जब उसे प्रतिक्रिया दी जाती है, ठीक स्निग्धा की तरह! कथा-कहानी लिखने के तुरंत बाद वह प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में रहती थी.
प्रतिक्रियाएं आती भी थीं और उनमें से अधिकतर सकारात्मक होती थीं, जिनसे स्निग्धा नवनीत की मानिंद स्निग्ध हो जाती थी. उसके विचारों से सहमत न होने वाले किसी पाठक की कभी-कभी नकारात्मक प्रतिक्रिया आती, तो उसे भयानक अपच हो जाता था और वह तिलमिला उठती थी.
अन्य लेखकों को सकारात्मक प्रतिक्रिया देने की तरह रोटीमेकर को भी वह ”सर्वश्रेष्ठ” प्रतिक्रिया से नवाजती थी, एक दिन उसकी उंगली ने गलती से ”निकृष्ट” को टैप कर दिया. रोटीमेकर को कोई फर्क नहीं पड़ा. रोज की तरह उसने तुरंत Off का ऑप्शन दे दिया और अगले दिन वही शानदार रोटियों का तोहफा हाजिर किया.
”मुझे भी रोटीमेकर की तरह निर्लिप्त होना चाहिए.” स्निग्धा ने सोचा.
तभी उसके सामने 27 दिसंबर का ऐतिहासिक महत्व देखते-देखते चाय की नीलामी की बात सामने आ गई.
”27 दिसंबर 1861 को कलकत्ता में चाय की पहली सार्वजनिक नीलामी हुई.” उसने पढ़ा और आश्चर्यचकित हो गई थी.”
”मुझे भी तुरंत अपनी कमजोरी का त्याग करना होगा, वो भी तुरंत और बिना मोल!” उसने दृढ़ निश्चय किया.
त्याग के निश्चय मात्र से ही उसे खुद में मनोहारी हल्केपन और बेहद प्रसन्नता का एहसास हुआ.