मानवीय सरोकार को जिंदा रखने का मंत्र देती हैं राखी (गुड़िया) की कविताएं
राखी (गुड़िया) एक ऐसी कवयित्री है जो मस्त मनमौला अंदाज में अपनी रचनाओं के माध्यम से तमाम पहलू को अभिव्यक्ति दी है। विचारों को मुखरित किया है। जो उनकी रचनाएं काबिले तारीफ है।उनकी रचनाओं में विचारों के साथ-साथ भावात्मक पक्ष का गहरा सरोकार देखने को मिलता है। उनकी रचनाओं में प्रकृति का मानवीकरण हुआ है। वे अपने विचारों का गूंथन कर अपनी बात को श्रोता तथा पाठक तक बिना रुकावट किए पहुंचा देने की कला उन्हें अच्छे से आती है। रचनाओं में सहज भाषा के साथ उर्दू शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है। रचनाओं में जीवन का गहरा अनुभव है तो न्याय और विरोध की प्रखर आवाज़ भी देखने को मिलती है। यथार्थ बात को कहना वो भी सूक्ति बद्ध ढंग से कहना बड़ा अनोखा अंदाज़ है-
“खुशियों का कोई मोल नहीं,
इससे ज्यादा चीज कोई अनमोल नहीं।
खरीद ले जो लाखों दिलों को,
प्रेम से मीठा कोई बोल नहीं।”
कभी वह बेटियों के दर्द को समझती है तो कभी प्रकृति के दोहन के दर्द को। अपनी रचना ‘बरखा रानी’ के माध्यम से कवयित्री ने प्रकृति के विनाश करने वाले के प्रति रोष एवं चिंता जताई है। कवयित्री राखी (गुड़िया) ने बेटियों के महत्त्व को बड़ा ही मार्मिकता से वर्णन करती हुई कहती है-
“मां की ममता, भाई का प्यार, पिता की दुलार है बेटियां।
सच पूछो तो सृष्टि का आधार है बेटियां”
बेटियों पर हो रहे अत्याचार से कवयित्री चीख पड़ती हैं और जुल्मों को देखकर आवेशित होती है। अपनी “धिक्कार है” कविता के माध्यम से डांट-फटकार लगाती है।
कहीं अपनी बात को बहुत ही गहराई के साथ कहती है-
“कोई गर ख़ास होता है दिल को यह एहसास होता है।
दूरी कितनी भी हो लेकिन हर पल दिल के पास होता है”
अपनी रचना “खुदा ए यार” में शिद्दत के साथ दोस्ती निभाने की बात कही है। रचना में अधिक ईश्वर आस्था, विश्वास तथा तीव्र मिलन की उत्कंठा इनकी रचनाओं के में देखने को मिलती है। रचना “अंगारा” में अपने अस्तित्व को।अपने वजूद को जिंदा रखने की पूर्ण कोशिश दिखाई देती है। प्रबल आत्मविश्वास के साथ –
“मैं कोई चींटी नहीं जिसे यूं मसल दोगे।
तुम्हारे रास्ते का धूल नहीं जिसे यूं कुचल दोगे।”
अपनी बात को तराजू में रखकर तोलना इन्हें अच्छी तरह आता है। अपनी ‘योग्यता और अनुभव’ कविता में कहती है –
“ओल्ड इज गोल्ड होता है।
मगर नया भी तो डायमंड हो सकता है।”
राखी जी (गुड़िया) की रचनाओं में मानवीयता की सीख एवं संस्कारों की एक बहती नदी नजर आती है। वे अपनी रचना “चश्मा” में बहुत ही सुंदर ढंग से कहती है-
“अहंकार का चश्मा लगाते हो क्यों,
दिन-ब-दिन नंबर बढ़ाते हो क्यों।
अरे नज़रों को नहीं नज़रिया बदलो,
अपनी सोच का दायरा घटाते हो क्यों।”
इस तरह कवयित्री राखी (गुड़िया) थोड़े में बहुत कुछ कहने की गुंजाइश रखने वाली कवयित्री है।
मैं उन्हें बहुत-बहुत बधाई देता हूं और आशा ही नहीं बल्कि विश्वास करता हूं कि उनकी रचनाएं श्रोताओं और पाठकों के लिए जीवन उपयोगी साबित होगी और साथ ही कवयित्री साहित्य संसार में अपना योगदान सतत देती रहेगी।
इन्हीं असीम शुभकामनाओं के साथ।
— डॉ. कान्ति लाल यादव
सटीक व सार्थक समीक्षा के लिए बधाई.