गीत/नवगीत

सर्दी का गीत

घना कुहासा नभ में छाया, सर्दी  का  मौसम  है आया।
ठंडक ने जब कहर ढहाया,थर-थर काँपे सबकी काया।।

बर्फीली चल रही हवाएँ,बचने को नहिं शेष दुआएँ।
कोई दे दे गर्म चाय तो,हम भी अपना तन गरमाएँ।।
कम्बल,स्वेटर सबको भाते,सारे ही इनके गुण गाते।
पड़े हुए जो फुटपाथों पर,उन पर कोई ध्यान न लाते।।
शीत लहर ने वतन कँपाया,मानव बेहद है घबराया।
घना कुहासा नभ में छाया, सर्दी  का  मौसम  है आया।।(1)

शालाओं में छुट्टी घोषित,पढ़ने वाले क्यों हो शोषित।
बर्फ देखकर सब सैलानी,हो जाते हैं सारे मोहित।।
तापमान गिरता ही जाता,साहस सबका नीचे आता।
समाचार जब उच्च ताप का,तो वह हर जन को है भाता।।
जाड़े ने आवेग दिखाया,सबको घर में बंद कराया।
घना कुहासा नभ में छाया,सर्दी का मौसम है आया।।(2)

सर्दी से लड़ते हैं सारे,नर-नारी मौसम के मारे।
आज सभी बेबस बेचारे,खोज रहे हैं सभी सहारे।।
सर्दी जब गुस्से पर आती, नहीं ज़रा भी रहम है खाती।
शीतपेय की कद्र घटाती,कुल्फी बिलकुल नहीं लुभाती।।
ताप शून्य तक नीचे आया,आवाजाही बंद कराया।
घना कुहासा नभ में छाया, सर्दी  का  मौसम  है आया।।(3)

टोपे सिर को ढँके हुए हैं,गर्म पेय सब पिये हुए हैं।
ताल-तलैया,झील जम गए,नदियों ने निज होंठ सिए हैं।।
सर्दी तो मातम करती है ,यह सबके सुख को हरती है।
बस्ती हर क्षण पीड़ा झेले,नित ही तो दुुख को वरती है।।
सर्दी ने नवतेज दिखाया,मजदूरी को बंद कराया।
घना कुहासा नभ में छाया,सर्दी का मौसम है आया।।

(4)
धुंध देर तक फैला रहता,इंसां देखो क्या-क्या सहता।
क़ुदरत का करतब है बहता,जगत सभी कुछ तो है गहता।।
चक्र सतत् ही तो चलता है,मानव आँखें ही मलता है।
कभी पिघलता,तो जलता है,कष्ट मिले तो अति खलता है।।
सब कुछ है ईश्वर की माया,कभी उष्ण,तो ठंडी लाया।
घना कुहासा नभ में छाया,सर्दी का मौसम है आया।।(5)
— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]