आज का कण्व
बड़ी मुस्तैदी से सारे प्रबंध कर रहे थे अरविंद जी, पर उनका मन आज बहुत उदास था. शकुंतला आज विदा जो हो जाएगी!
प्रबंध करते-करते, आदेश देते-देते भी उन्हें 18 साल पहले की बात याद आ रही थी.
”किसी मेनका ने ही तो एक मासूम बच्ची को उस जंगल में फेंक दिया था, जहां सांप-अजगरों का निवास था.” उनकी सोच मुखर थी.
”सुना है, कण्व की शकुंतला को शकुन (पक्षियों) ने पाला था, केले के पत्तों ने उसके कोमल शरीर को ढांप दिया था. बच्ची कभी रो पड़ती थी, तो पक्षी अपनी चहक से उसे बहलाते थे. उसका रोना सुनकर कण्व ऋषि ने उसे बचाया था और शकुंतला नाम देकर पुत्री की तरह पालकर बड़ा किया था.” हलवाइयों का काम संतोषजनक चल रहा था, उन्होंने देखा.
”मेरी शकू को भी शायद शकुन (पक्षियों) ने पाला था, केले के पेड़ों ने उस पर छांव की थी, हो सकता है कोई सांप-अजगर इसे बेसहारा समझकर बिना हाथ लगाए चला गया हो!” टैंट वाले मुस्तैदी से काम पर लगे हुए थे, उनकी नजर सब पर थी.
”मैं न तो कण्व हूं और न ऋषि, पर उस जंगल से गुजरते हुए बच्चे के रोने की आवाज सुनकर मैं उसके पास जाने से खुद को रोक नहीं पाया और फिर उसे लेकर सीधे थाने चला गया. थाने वालों ने ही तुरंत उसे अस्पताल पहुंचाकर उसका इलाज शुरु करवाया.” वे बराबर कामगारों पर नजर रखे हुए थे.
”उसके ठीक होने पर दो ही विकल्प थे, अनाथालय में या फिर मेरे आश्रय में!” 18 साल पहले का वह दृश्य उनके सामने नमूदार हो गया.
”उस बच्ची से मुझे इतना लगाव हो गया था, कि मैं खुद को कण्व ऋषि ही समझने लग गया.” उसे छोटी-सी शकू का उसे टुकुर-टुकुर निहारना याद आ रहा था.
”आज शकू विवाह योग्य हो गई है, कोई दुष्यंत आकर इसको छल न जाए, इसलिए उसकी पसंद से मैंने इसका विवाह तय किया.” वे भावुक हो चले थे.
”आज विवाह की वही बेला आ पहुंची है, लेकिन—–” उसके आगे वे सोच ही नहीं सके, आंसू की झर-झर जो शुरु होने को थी.
”साहब ठंडाई के लिए कौन से गिलास प्रयुक्त करने होंगे?” एक बैरे ने पूछा तो अरविंद जी की तंद्रा भंग हुई.
”विदाई तो हंस-हंसकर ही देनी होगी!” आज के कण्व ने खुद से कहा और उलझे हुए मन को सुलझाने में लग गए.
हाल ही में हमने यह लघुकथा “आज का कण्व” लिखी थी. इसमें हमने संकल्पना की थी, कि जिसने बच्ची को बचाया उसी ने उसको गोद लेकर पाला-पोसा. साइबेरिया में ऐसा ही हुआ है. एक मां -20 डिग्री में अपनी नवजात बच्ची को छोड़ गई. जाको राखे साइयां–. पांच किशोरों ने उसको देखा. उनमें से एक बच्ची को उठाकर घर ले गया. उसके माता-पिता उसे थाने और फिर अस्पताल ले जाते हैं. आश्चर्य यह रहा, कि बच्ची बिलकुल ठीक ठाक रही. उसका हाजमा भी ठीक था. उसको थाने और अस्पताल ले जाने वाले दम्पत्ति को बच्ची से इतना लगाव हो गया, कि वो उसे गोद लेना चाहते थे. कानूनी रूप से वह बच्ची उनको दे दी गई. लेखिका लीला तिवानी
आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. आज का अर्जुन की भांति आज का कण्व कथानक पढ़ने में तो शानदार है ही पर सबसे गज़ब बात यह है इस ब्लॉग की उत्त्पत्ति – एक अद्भुत और अकल्पनीय सोच. इतिहास और वर्तमान समानांतर चलते हुए, जिस प्रकार कभी-कभी आकाश में रात्रिकाल में रंग-बिरंगे सितारे नृत्य करते नज़र आते हैं उसी प्रकार आपकी सोच निशा में जगमगाती हुई सभी को अचंभित कर रही है. यह सम्मिश्रण बहुत शक्तिशाली है और भारतीय पुरातन पौराणिक इतिहास को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखता है. बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं.
सुदर्शन भाई, आपका हर शब्द ब्लॉग को विस्तारित कर रहा है. यह आपकी जर्रानवाजी है. हम सचमुच निःशब्द हैं. भाषा और भावना सम्मिश्रण बहुत शक्तिशाली है और आपके व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करने की क्षमता रखता है. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन.
अच्छी जानकारी बहिन जी !
विजय भाई, अत्यंत व्यस्त होते हुए भी आपने कथा पर अपने विचार व्यक्त कर हमें प्रोत्साहित किया, बहुत-बहुत शुक्रिया.
हाल ही में हमने एक लघुकथा लिखी थी- “आज का कण्व”. इसमें हमने संकल्पना की थी, कि जिसने बच्ची को बचाया उसी ने उसको गोद लेकर पाला-पोसा. साइबेरिया में ऐसा ही हुआ है-
-20 डिग्री में नवजात बच्ची को छोड़ गई मां, फिर जो हुआ उसे लोगों ने चमत्कार कहा
फलक मंच ने इस लघुकथा “आज का कण्व (लघुकथा)” का ऑडियो बनाया है, जो शीघ्र ही आपके समक्ष उपस्थित होगा.
कण्व वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का लालन पालन हुआ था। सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है।