सामाजिक

उत्तराधिकार

जो अपनी पहले वाली पीढ़ी से प्राप्त हो, वही उत्तराधिकार है। ये उत्तराधिकार की व्यापक परिभाषा है।अर्थ और संपत्ति प्रधान व्यवस्था जो मानव ने अत्यंत श्रम और उद्योग से स्थापित की है वहाँ उत्तराधिकार वो चल और अचल संपत्ति है जो किसी को माता पिता से प्राप्त हो।और अपने इस उत्तराधिकार को पाने के लिए लोग अपनी पूरी ताकत झोंक दिया करते हैं।
एक वाकया साझा करना चाहूँगी।आज एक सज्जन कार्यालय में पधारे।उम्र कोई 40-45 साल रही होगी।आते ही कागज़ों का बड़ा सा पुलिंदा दिखाया।दरअसल उनके दिवंगत पिता की पेंशन से वो पैसा वापस ले लिया गया था जो उनकी मृत्यु के बाद उनके खाते में भेजा गया था।सब कुछ नियमानुसार ही हुआ था लेकिन उन्हें इस पर गहरी आपत्ति थी और इस आपत्ति को वे कई सरकारी संस्थाओं में दर्ज भी कर चुके थे।क्या आत्मविश्वास था जो अपना नहीं है उस पर दावा ठोंकने का।कई बार तो लोग अपनी सही चीज पर भी इतने आत्मविश्वास से दावा नहीं कर पाते।और तो और पूरी तरह से ठीक-ठाक दिखाई देने वाले वो सज्जन खुद को दिव्यांग भी बता रहे थे और इस नाते पिता पर खुद को आश्रित बताकर पेंशन पर भी दावा कर रहे थे….
ये है उत्तराधिकार और उसका दावा।बस यही सहेज पाएंगे क्या हम उत्तराधिकार के नाम पर?चंद कागज़ और जमीन के टुकड़े….बस!क्या इसी से हम आगे बढ़ा पाएंगे अपनी मानव सभ्यता को? जिन महान लोगों ने सभ्यता को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया,क्या उन्होंने भी यही सहेजा था अपने पूर्वजों से?राम ,कृष्ण,बुद्ध कहाँ से ले आये थे इतना अदम्य साहस और ज्ञान जिसने न जाने कितने युगों को प्रकाशित कर दिया।कितना फर्क आ गया युगों में । पिछली कई पीढ़ियों ने ऐसे ही उत्तराधिकार को अपनाकर आज हमें यहाँ ला छोड़ा है जहाँ हम साहस के साथ पुरखों की विरासत को आगे ले जाने सेज्यादा बेहतर संपत्ति के लिए खुद के हाथ-पैर गवांकर विकलांग बन जाना समझते हैं।मूल्यों और संस्कारों को विरासत की श्रेणी से बाहर कर दिये जाने का ही परिणाम है शायद कि आज हम अपनी ही जड़ों को काटकर ,अन्य संस्कृतियों की शाखाओं पर जाकर लटक से गये हैं जहाँ जमीन ही नहीं है हमारे पैरों तले।और हम इस भ्रम में हैं कि हम हवा में ऊँची उड़ान भर रहे हैं।काश कि हमारा भ्रम टूट जाए और हम गिरकर ही सही,चोट खाकर ही सही अपनी जमीन पर वापस लौट आएं।

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश