व्यंग्य ग़ज़ल – चमचा
जिस महफिल में जाए चमचा।
सब के मन को भाए चमचा।
रोक नहीं है टोक नहीं है,
आए चमचा, जाए चमचा।
रिश्वत लेकर काम करावे,
शर्म हया ना खाए चमचा।
अत्त्याचार सिआपे आंसू,
हाए चमचा, हाए चमचा।
दुश्मन सज्जन ग़ैर बिगाने,
सब को यार बनाए चमचा।
ऊंचे पद के विद्वानों को,
अनपढ़ है समझाए चमचा।
मांसाहारी, शाकाहारी,
सब कुछ ही खा जाए चमचा।
थाली है सब्जी रोटी है,
बिन चमचे तड़पाए चमचा।
बंद मुट्ठी ’गर खोल दवे तो,
दिग्गजों को रूलाए चमचा।
अभिवादन, अभ्यर्थी बन कर,
बंदनवार सजाए चमचा।
प्रहसन, चर्चा विमर्श हँसीं,
सार्वलौकिक पाए चमचा।
दिन को चाँद सितारे लाए,
रात को सूर्य चढ़ाए चमचा।
साध्ू बन कर भक्तों में फिर,
जल में दीप जगाए चमचा।
अनहोनी अनकथनी करता,
पानी पर चल जाए चमचा।
अंधें को दीप्ति देवे है,
तृत्तीए आँख कहाए चमचा।
बाद में उस को लूटे पहले,
गिरता शख़्स उठाए चमचा।
पहले सज्जन यार बनाए,
फिर तलवार चलाए चमचा।
गिरगिट भांति खुद को बदले,
क्या क्या रंग दिखाए चमचा।
जिस ने देश घूमा रखा है,
मौत के मुँह में जाए चमचा।
देश वही है उन्नति करता,
जिस को न कोई भाए चमचा।
‘बालम’ हाथ से खाना खाए,
उस के पास न आए चमचा।
— बलविन्दर ‘बालम’