लघुकथा – होशियारी
‘लगता है मेरा बेटा कुंवारा रह जाएगा। गांव में कुलदीप से कम उम्र वालों के सर पर सेहरा बंध गए।बाल – बच्चे भी हो गए।मेरे ही करम फूटे हैं…’ दयमंती सोचती है और सोचते-सोचते वर्मा जी पर हल्ला बोल दिया , “दहेज को गोली मारिए। हमें किस बात की कमी है।बीस बीघा जमीन है।आजादी से खा-पीकर साल में तीन-चार लाख रुपए बच जाते हैं।गरीब घर की लड़की से बेटा का आदर्श विवाह कर दीजिए…।”
वर्मा जी भी चिंतित हैं । बुद्धि का घोड़ा दौड़ा रहे हैं कि पढ़ी-लिखी स्वर्णाभूषणों से लकदक पुत्र – वधू का उनका सपना कैसे पूरा हो।
“थोड़ा और धैर्य धरो।हो जाएगा।मेरा बेटा सरेसा घोड़ा है, कोई गदहा नहीं..”
“एम ए पास गदहा है। बेरोजगार है।यही सबसे बड़ा ऐब है। इसीलिए अगुवा भड़क जाते हैं।”
”खुशखबरी बताना तो भूल ही गया। कुलदीप को मुंबई में नौकरी मिल रही है।”
दयमंती को बेटे की नौकरी से अधिक खुशी यह सोच कर हो रही है कि बेटे की शादी होगी। कानों में शहनाई गूंजने लगी।
कुलदीप नौकरी पर चला गया।
अब वह हरेक महीने चालिस हजार रुपए मनी ऑर्डर घर भेजता है। दयमंती ने पूरे गांव में मिठाई बांटी। जिला जवार में बात फैल गई कि बर्मा जी का पुत्र सर्विस कर रहा है।
अब कुलदीप पर बरतुहार तर -ऊपर करने लगे। बोली लगने लगी। वर्मा जी के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे हैं।
उनका सपना साकार हो गया, लेकिन शादी के पश्चात जब कुलदीप घर में ही जम गया ,तो वर्मा जी से समधी ने पूछा-” दामाद जी सर्विस पर क्यों नहीं जा रहे।”
वर्मा जी को कुछ कहते नहीं बना।
यही सवाल वर्मा जी की पत्नी ने जब किया, तो उन्होंने उसके कान में धीरे से कहा-” कैसी नौकरी?”
“और वो मनी ऑर्डर!”
“वो तो मैं भेज रहा था।”
— उमाकांत भारती