आसमान का परिंदा
यूँ तो खुद को वो
आसमान का परिंदा कहता है
मगर मुझसे वो अपनी
हद में रहकर मिलता है।
वो माहिर है हर राज
छुपाने में अपने
मुझसे मिलता है तब वो
जरा खुलता है।
वो लुटाता है फरिश्तों सा
प्यार दुनिया पर
रब के सामने अपने
चाक-ए-जिगर सिलता है।
यूँ तो बहता है समुंदर भी
हदों में अपनी
हदों में रहके भी एक
जहान उसमें पलता है।
कोई शोहरत या बुलंदी
नहीं चढती सिर पे
ख्वाब आसमाँ के ज़मी से
देखू,दिल मचलता है।
थकन दिन भर की और
जद दुनिया दारी की
घर लौटू तो बेटी की हसी से
दिल संभलता है।
— मोहिनी गुप्ता