कविता

हम एक होने लगते हैं

खत्म होती धीरे-धीरे
सुरमई शाम
जब रात के आगोश में
समाती है
तो दूर कहीं चाँदनी की
चमक बिखर जाती है
बीते लम्हें जादुई
पाश से जकड़ जाते हैं
यादों की रहगुजर
आकर पलकों के
शामियाने तानती है
तब कहीं जाकर मौहब्बत
आजमाती है
सांसों में आहों में
निगाहों के दरीचों में
एहसास के जज्बात
नुमां होने लगते हैं
दूर ही से सही हम
एक होने लगते हैं
— प्रवीणा दीक्षित

डॉ. प्रवीणा दीक्षित

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, जनपद-कासगंज, उत्तर-प्रदेश