आने वाला कल
मेरे मित्र
तुम्हें खून कहाँ से दूं ?
मेरी रगों में
गंदे नालों का साफ़ किया हुआ
पानी बहता है !
मेरे शहर का वाटरवर्क्स
मरी हुई मछलियों का
बढ़ता हुआ ढेर
अपनी बदबूदार छाती पर
सहता है !
सोचता हूँ
आने वाले किसी कल में
इसी ढेर के साथ
मैं भी अपने पंजे फैलाऊंगा
तब मेरा विवेक
मुझसे कहेगा
तुम्हें गंगा जल से भरी अंजुरी
कहाँ से दूँ ?
मेरे मित्र
तुम्हें खून कहाँ से दूँ ?
मेरी रगों में
विद्युत् भट्टियों का पिघला हुआ
इस्पात बहता है ,
इस शहर के हर आदमी के पास
इस्पाती आँख ,इस्पाती कान
और एक इस्पाती दिल रहता है !
सोचता हूँ
प्रेम व शील इस युग की
किन्हीं पहली भट्टियों में गलकर
किसी लावारिस गढ़े में पड़े
अपना दम तोड़ रहे होंगे !
तब मेरा विवेक
आने वाले किसी कल में
मुझसे कहेगा
नियति द्वारा भोगे गए
नीम यथार्थ को
प्यार और आदर का
परिवेश कहाँ से दूँ ? **
— विष्णु सक्सेना