ग़ज़ल
वो अब यूँ अदब से पेश आने लगे हैं
मानो ज़मीर हमारा आज़माने लगे हैं
हैं सोच में हम गुम, लब-ए-गोया नहीं
ग़ैब से ख़याल ज़ेहन में आने लगे हैं
लब-ए-ख़ामोश सर-ए-बाम-ए-ख़्याल
तन्हा-तन्हा रातों में हमें जगाने लगे हैं
तर्क-ओ-तलब रहे हम माज़ी की राहों में
मौजूदा वक़्त बे-नियाज़ी में बिताने लगे हैं
किताब-ए-दिल के सफ़हे पोशीदा रखे
ब-ज़ात-ए-ख़ुद ही ख़ुद इन्हें छुपाने लगे हैं
— प्रियंका अग्निहोत्री “गीत”