जैसे हैं, वैसे ही रहें भी, और दिखें भी
जो हम हैं वह हैं ही, यह हमारी मौलिकता ही है कि हम ‘हम’ हैं। परमात्मा ने जैसा शरीर, मन और बुद्धि प्रदान की है उसी के अनुरूप साँचे में ढले हुए हैं। जैसे भी हम हैं वैसे हैं क्योंकि दुनिया में भगवान ने हर व्यक्ति को अलग मौलिक स्वरूप और गुणधर्म प्रदान किया है। अपनी तरह का कोई दूसरा पूरी दुनिया में नहीं होता। कपाल से लेकर हाथ की लकीरों तक हर कोई अद्वितीय है। इस मायने में विश्व का हर इंसान ईश्वर की अनुपम कृति है और वही उसकी मौलिकता है।
फिर किसी के अच्छा कहने से प्रसन्न और बुरा कहने से खिन्न होने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि किसी भी मनुष्य का मूल्यांकन दूसरा ऎसा मनुष्य नहीं कर सकता जो दिव्यत्व और दैवत्व से हीन हो। हालात ये हैं कि हमसे कम पढ़े-लिखे या अनपढ़, प्रतिभाहीन, इंसानियत के दुश्मन और नुगरे नाकारा हमारे बारे में कहते रहने का दुस्साहस करने लगते हैं, इससे बड़ा संसार का आश्चर्य और क्या हो सकता है। बदतमीज और बदमिजाज लोगों की चवन्नियां ही आजकल भौंकने और बकवास का सहारा लेकर चलते लगी हैं।
कोई अच्छा कह दें तो हम खुश हो जाते हैं और कोई तनिक सी अनमनी बात कह दे तो दुःखी हो जाते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि हमारा सुख और दुःख किसी और व्यक्ति के अधिकार में कैद है। अधिकांश लोग झूठी तारीफ सुनकर प्रसन्न हो उठते हैं और जरा सा सच कह दिया जाए तो आगबबूला हो उठते हैं। कोई भी सच को सुनना ही नहीं चाहता। और यही कारण है कि लोग बिगड़ैल होते जा रहे हैं।
संसार में हजारों-लाखों बुरे लोग हमें बुरा कहें तो कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि इन्हें हमारे मूल्यांकन का कोई अधिकार है ही नहीं। ये लम्बी-चौड़ी फैली हुई भीड़ तमाशबीन है जो किसी के जनाजे पर भी खुश होती है और शादी-ब्याह पर भी खिन्न हो सकती है।
भीड़ का अपना कोई चरित्र कभी नहीं रहा। भीड़ तलाशती है धुँआ, और उस दिशा में बढ़ती रहकर जमा हो जाती है। हमारे मूल्यांकन का अधिकार हमसे श्रेष्ठ व्यक्ति को ही है और उसी के मूल्यांकन पर ध्यान देना चाहिए,शेष सारे तो वाहनों के पीछे दौड़ लगाने वाली प्रजाति का ही हिस्सा हुआ करते हैं।
गंभीर चिंतन का विषय तो तब सामने आता है जब वास्तव में अच्छे चरित्र वाला एक भी अच्छा आदमी अपने बारे में निन्दा कर दे। लाखों बुरे लोगों की निन्दा से बेपरवाह रहें, बुरे लोग निन्दा करें तो इसका सीधा सा मतलब यही निकालना चाहिए कि हम अच्छे मार्ग की ओर बढ़ रहे हैं।
प्रयास यह करें कि किसी अच्छे आदमी के मन में अपने प्रति नकारात्मक भाव या दुर्भावना न आए। बुरे आदमी जो करें, करने दें, यह निश्चित मान कर चलें कि बुरे लोगों की यह भीड़ अपने पूर्वजन्म में पशुओं के बाड़े का हिस्सा रही होगी। और उसी जंगली बाड़े से निकल कर सीधे इंसान का खोल पा गए इन हिंसक जानवरों से अच्छे कार्यों और सुविचारों की उम्मीद करना ही बेमानी है।
बुरे लोगों की प्रशंसा पाने से बचना चाहिए क्योंकि यह उनके जीवन के रोजमर्रा के अभिनय का अंग होता है। हजार बुरे लोग यदि हमें बुरा कहें तो हम पर तनिक भी असर नहीं पड़ना चाहिए लेकिन एक भी सज्जन व्यक्ति हम पर कोई टीका-टिप्पणी करे तो उसे गंभीरता से लेकर हमें अपने कर्म और व्यवहार का ईमानदारी से मूल्यांकन करना चाहिए और उसके बाद ही अपेक्षित सुधारों पर अमल करना चाहिए।
जो लोग हमेशा ही निन्दा करते रहते हैं उनके बारे में थोड़ी फुरसत निकाल कर निरपेक्ष भाव से सोचें कि ये लोग हमें ही नहीं बल्कि उनके सम्पर्क में आने वालों से लेकर अनजान लोगों तक के बारे में हमेशा बुरी ही बुरी टिप्पणी करते हैं, नकारात्मक ही सोचते और करते हैं। ऎसे में यह उनकी आदत में शुमार हो चला है जिसका अंत इनके आकस्मिक अथवा खटिया में बरसों तक सड़कर मरने के बाद ही संभव है।
इनमें सुधार की कहीं कोई गुंजाईश नहीं होती क्योंकि इनका जिस्म पराए खान-पान, औरों की झूठन एवं खुरचन से बना होता है, जीवन निर्वाह के सारे के सारे साधन या तो मुफतिया हैं अथवा हराम के। दिमाग कचरा घर और दिल सीवरेज लाईन की तरह होता है।
इस किस्म के कचरा पात्रों से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए बल्कि जहां तक हो सके, इनसे दूरी बनाए रखना और हरदम उपेक्षित किए रखना ही सबसे बड़ा उपाय है। यह तो हमारा दुर्भाग्य ही है कि ऎसे लोगों के साथ रहना और काम करना पड़ता है जिन्हें देखने तक में घृणा उत्पन्न होकर घिन्न आती है अन्यथा कोई भी असली इंसान इन लोगों के साथ सम्पर्क या कैसा भी व्यवहार कभी पसंद नहीं करता।
फिर आजकल मुफ्तखोर झूठनजीवियों का संख्या बल भी बढ़ता जा रहा है। समाज की यह भी विडम्बना है कि समझदार लोग इन पर नकेल कसने की बजाय इनका उपयोग पालतू कुत्तों की तरह करते हैं और अपने उल्लू सीधे करते रहते हैं। इस वजह से ऎसे समाजकंटकों को प्रश्रय मिलता है।
जमाना यह भी आ गया है कि चोरों को चोर-डकैत न कहकर साहूकार कहो, दुष्टों को सज्जन कहते रहो और महिमा मण्डित करते हुए उन्हें महापुरुषों के मुकाबले दर्शाते रहो, तो सारे खुश। वे लोग धन्य हैं जो इन नाकारा नुगरों का इस्तेमाल करना जानते हैं और अपने पालतु मवेशियों की तरह अपने-अपने बाड़ों में कैद रखकर उल्टे-सीधे कामों में जोत कर जुटे रहते हैं।
— डॉ. दीपक आचार्य