डिजिटाइज्ड सरपंचजी
ग्राम्यांचल में वहाँ के स्थानीय विवाद निपटाने के लिए किसी मौजे की एक ग्राम -पंचायत होती है।एक मौजे में एक या एकाधिक गाँव होते हैं।ग्राम -पंचायत में पाँच गण्यमान्य व्यक्ति पंच चुने जाते हैं ,जिनका वहाँ विशेष सम्मान भी होता है। वही वहाँ के जज होते हैं।इसी प्रकार कई ग्राम -पंचायतों की एक न्याय पंचायत भी होती है।जिसका एक प्रमुख पंच ‘सरपंच’ कहलाता है। जिसे वहाँ का उच्च न्यायालय भी कह सकते हैं।ये पंचायतें अपने स्तर से जो भी फैसला सुनाती हैं ,उसे मानने के लिए वहाँ की प्रजा बाध्य होती है।किसी का हुक्का – पानी बंद कर दिया जाता है ,तो किसी को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। किसी को जूते खाने की सजा दी जाती है, जिसे दूसरा पक्ष उसे साकार रूप प्रदान करता है। इसी प्रकार के विचित्र फैसले देखने – सुनने को मिलते हैं।
विचार करने पर ज्ञात होता है कि इसी ‘पंच’ से ‘पंचर’ (छिद्र) शब्द बना है। पंच का एक अर्थ पाँच अँगुलियों के पंच (थप्पड़/मुक्का/घूँसा ) से भी लिया जाना है। ‘सरपंच’ शब्द भी कुछ इसी प्रकार बना होगा। जिसके ‘सर’ में ‘पंच’ हो अथवा जो किसी के सर में पंच मारने की सामर्थ्य से युक्त हो । कोई आवश्यक नहीं कि सरपंच के फैसले से दोनों पक्ष संतुष्ट हों।
अब युग बदल गया है। ‘सरपंच’ का भी हाई डिजिटाइजेशन हो गया है। नई परिभाषा के अनुसार अब वे व्हाट्सएप ग्रुप्स के एडमिन बन गए हैं। जो जब चाहे किसी को अपने ग्रुप/पटल में जोड़कर अपने परिवार का सदस्य बना सकता है। बिना कारण बताए उसे बाहर का रास्ता दिखाने का भी पूरा अधिकार है। जैसे किसी दल के नेता को छः साल के लिए दल से बाहर करके सीधे दस वर्ष के लिए काले पानी की सजा दे दी जाती है। पर आप जानते हैं कि बाहर रहकर वह धोबी के श्वान की तरह न घर का रहता है न घाट का।भूल जाता है पिछला घमंड ठाठ- बाट का। याद आ जाता है भाव आटे -दाल का।
हाँ, तो एडमिन की बात चल रही थी कि इतने में राजनीति आ घुसी। ये सियासत भी कुछ ऐसी ही चीज है कि जहाँ न चाहो , वहीं चौके तक घुसी चली आती है।चौकी,चौक औऱ चौका ;है कोई ऐसी जगह जहाँ ये नहीं हो ! युग ही राजनीति का है, क्यों नहीं घुसेगी भला? मान न मान मैं तेरी मेहमान।एडमिन के नीचे कभी- कभी तो एडमिंन्स की बारात ही खड़ी हो जाती है; जो चाहे जिसको घुसाए , जिसको चाहे बाहर का रास्ता दिखाए।शेष सब को सदस्य कहें ,अनुगामी कहें या स्व सुविधानुसार कोई और नाम दे लें।सब कुछ मुझसे ही क्यों कहलवाना चाहते हैं। आप भी तो कहीं एडमिन कहीं ,उप एडमिन औऱ कहीं सम्मानित सदस्य हो सकते हैं।होंगे ही। नहीं होंगे ,तो होने वाले होंगे।
व्हाट्सएप के इन पटलों में भी सियासत का बोलबाला है।जी हुजूरी करते रहो ,मंत्री ,संत्री और तंत्री के पदों पर बैठा दिए जाओगे अन्यथा तो आप जानते ही हैं , अनुशासनहीनता के द्वार से हवा खाते नजर आओगे। छः साल के लिए बाहर निकाले गए नेताजी की तरह। उन्हें राजनीति इतनी रास आ गई है ,कि वे इस धंधे के अतिरिक्त दूसरा धंधा कर ही नहीं सकते।बिना इसके जी भी नहीं सकते। दल से बहिष्कृत करना उनके लिए एक प्रकार की ‘अस्थाई- मौत’ ही है। दूसरा घर मिलते ही उनका पुनर्जन्म हो जाता है।इस समय नेताओं के पुनर्जन्म का मौसम बहारें ले रहा हैं। बाहर वाले अंदर जा रहे हैं ।अंदर वाले बाहर जा रहे हैं। नए घर तलाश रहे हैं। कुछ किसी कारण वश नया घर तलाश कर मालाओं से लादे जा रहे हैं। मंत्री पद पाने की जुगाड़ लगा रहे हैं।जिसका पलड़ा भारी,उसकी ओर दुनिया सारी।जिस जहाज को डूब ही जाना है ,उसमें बैठने से अपनी मौत स्वयं ही बुलाना है। इसलिए समझदारी इसी में है कि दूसरे जहाज पर सवार हो जाना है और उसके भार को गलहार तक पहुँचाना है।
राजनीति में कोई किसी का स्थाई मित्र होता है, नहीं शत्रु। ये सब स्वार्थ, स्व- आसन और शीर्षासन का खेल है।कभी सीधे, कभी उलटे। एडमिन जी के कान भरने वालों की भी कोई कमी नहीं है।ढूँढ़ने की जरूरत नहीं है। वे स्वतः मिल जाते हैं।उनके चाहने भर से किसी को भी निष्कासित किया जा सकता है। उसकी हालत ये हो जाती है कि वह अपनी सफ़ाई भी मंच को नहीं दे सकता ,क्योंकि उसके सर के ऊपर सरपंच जी का हस्त- पंच इतना तगड़ा पड़ चुका होता है कि वह किसी काम का नहीं रहता। पुनः पटल पर लौटना सरपंचजी की महती कृपा पर ही निर्भर करता है। यदि वे पुनर्विचार करें तो।
ये काव्य ,अकाव्य, धर्म ,पेशा वर्ग ,वर्ण ,सवर्ण ,अवर्ण , शिक्षक , सियासत आदि आधारों पर बनी व्हाट्सएप पंचायतें युगीन न्याय -पंचायतें ही हैं।जहाँ आए दिन मर्यादा में रहने की शिक्षा प्रधान एडमिन द्वारा दी जाती रहती है। फिर भी कुछ सदस्य जान बूझकर ,कुछ भूलवश मनमानी करते हुए देखे जाते हैं।कभी वे ‘क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा’ के अनुसार आचरण करते हुए पटल छोड़कर स्वतः बाहर हो जाते हैं। पर अंदर आते हैं तो सरपंच जी की इच्छा से।
हर मंच या पंचायत कहिए ; में कुछ सदस्य मौज मनाने आते हैं। जो गूंगे की तरह गुड़ का रसास्वादन करते हैं। एकदम जड़वत।वे बेचारे किसी के बुरे न किसी के अच्छे ।दूध नहीं दे रही गौ की तरह सीधे। गाय वही लात मारती है ,जो दूध देती है। जो दुधारू न हो ,वह तो खड़े – खड़े चारा खाती है या खड़े खेत चरती है।यही हाल इन अनासक्त सदस्यों का है। वे चुपचाप खड़े – खड़े चारा चाभने के लिए ही पैदा हुए हैं।ठीक वैसे ही जैसे वरयात्रा में न सब नाचते हैं, न सब हल्ला -गुल्ला करते हैं। न सब वैवाहिक कार्य में व्यस्त रहते हैं। बस आनन्द लूटते हैं।दावत खाते नहीं ,लूटते हें । बस बैंड वालों के पीछे -पीछे जनवासे की चाल से चलते रहते हैं। ऐसा नहीं कि इन पर सरपंच जी की आँखें नहीं लगीं हैं। कुछ सरपंच जी तो बड़े मंच के गुमान में चुपचाप पड़े रहते हैं औऱ कुछ जागरूक सरपंच जी उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने में विलंब नहीं करते।
इस प्रकार सरपंच जी या कहिए एडमिन जी की अनन्त कथा है। पटल के सदस्यों के लिए तो कानून को अमली जामा पहनाया ही जा चुका है कि यदि कोई सदस्य मंच पर कोई गड़बड़ करता है अथवा आपत्तिजनक पोस्ट भेजता है ,उसका पूरा उत्तरदायित्व उसी का होगा,एडमीनों का नहीं ।इन सारे एडमिन्स की आचार – संहिता भी तैयार हो रही है। जो निकट ही किसी ‘लोग- असभा’ सत्र में संविधान में अपना स्थान बनाएगी और सरपंच बनाम एडमिंन्स की स्वेच्छाचारिता पर लगाम लगा सकेगी। कहीं आप भी एडमिन तो नहीं हैं? यदि हों, तो सावधान हो लीजिए। क्योंकि एडमिन क़ानून की धारा 840 में उन्हें बाँधा जाने की तैयारी चल रही है।सरपंचो!बनाम एडमिनो! सावधान हो जाओ।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’