नारा आठवीं शताब्दी में जापान की राजधानी हुआ करता था। नारा का शाब्दिक अर्थ ” प्रसन्न ” है। इस शब्द का मूल स्रोत हिंदी माना जाता है। यह महात्मा बुद्ध के विशाल मंदिर के कारण प्रसिद्ध है . यहां टोडायजी मंदिर है जिसमे महात्मा बुद्ध की १५ मीटर यानि करीब पचास फ़ीट ऊंची कांसे की प्रतिमा है। इस प्रतिमा को ” देबुत्सु ” कहा जाता है। इसको लकड़ी के बने एक विशाल भवन में रखा गया है। यह भवन बहुत विशाल और प्राचीन है। इसके आस पास बहुत बड़ा पार्क है जिसकी सुंदरता देखते ही बनती है। सचमुच इसको जापान का सारनाथ कहा जा सकता है। सारनाथ से भी अधिक स्वच्छ और शांतिपूर्ण स्थान है यह।
इस पार्क में हिरन पले हुए हैं जिनको पवित्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि बहुत वर्ष पूर्व एक आकाशीय अप्सरा ने एक सफ़ेद हिरन पर कृपा की थी जिसके बाद उसे इस पवित्र स्थान की रक्षा का भार सौंप दिया गया। तभी से इस स्थान में विचरने वाले हिरन पवित्र माने जाते हैं। यह चित्तिदार हिरन हैं। इनको रोटी खिलाना पुण्य का काम माना जाता है। पर्यटकों को देखकर यह अपना सर नवाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह इनको सिखाया जाता है। मगर सदियों से उनहोंने यही देखा है। सर को झुकाने पर रोटी मिलती है। अतः उनका यह व्यवहार प्राकृतिक बन गया है। छोटी छोटी बिस्कुट जैसी रोटियां कई जगह बिक रही थीं और सब उनको खरीद रहे थे हिरणो को खिलाने के लिए।
टोडायजी मंदिर के अंदर प्रवेश करने पर असीम शांति का आभास हुआ। सैकड़ों व्यक्ति इस प्रतिमा के सामने हाथ जोड़े खड़े थे मगर एक भी आवाज़ नहीं आ रही थी। सैकड़ों व्यक्ति अंदर घूम फिर रहे थे मगर चुपचाप। किसी की भी भावना इस वातावरण को भंग करने की नहीं थी चाहे वह जहां से भी आये हों। कुछ मिनट अपने मन में कोई प्रार्थना करने के बाद लोग प्रतिमा की प्रदक्षिणा करते हैं फिर बाकी के हॉल में चक्कर लगाते हैं। यह हॉल कई स्तंभों पर टिका है। कमाल यह है कि यह आठवीं शताब्दी का बना हुआ है यानि अपने मूल रूप में यह लकड़ी अभी तक मज़बूती से खड़ी है। इन्हीं स्तम्भों में से एक नीचे की ओर दो भागों में बनता हुआ है। जैसे दो टांगें हों। मान्यता है कि जो भी इसमें से निकलकर पार हो जाएगा उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। है तो यह कठिन काम मगर अनेक युवा कोशिश करने के लिए क़तार बांधे खड़े थे। जो निकल जाता था तो सब उसको पीठ थपथपाकर आशीर्वाद लेते थे उसका।
नारा मंदिरों का शहर है। टोडायजी के दाहिनी ओर एक शिंटो मंदिर भी स्थित है। इसको ” कसुगा ताईश्या ” कहते हैं। इसमें ३००० घंटियाँ बंधी हैं। यह भी आठवीं शताब्दी का बना हुआ है और एक देवी को समर्पित है जो सौभाग्य की देवी है।
नारा में ही एक अन्य बौद्ध मठ है। इससे जुड़ा एक मंदिर है जिसे ” याकुशी जी ” कहा जाता है। यह पांच माले का पैगोडा है और आठवीं शताब्दी में बना माना जाता है।
इन सभी का दर्शन आदि करके ,हिरणों को रोटी दाना खिला के , बगीचों में कुछ देर टहल के हम वापिस क्योटो शहर के लिए चल पड़ते। हमारी निर्देशिका बुद्धिज़्म की प्रोफेसर है। वह सारे रास्ते हमें जापान का इतिहास संक्षेप में बताती जाती है। महात्मा बुद्ध को शाक्यमुनि कहा जाता है यहां। उसे बुद्ध के जन्म से निर्वाण तक सारी कथा पता है। यद्यपि वह अंग्रेजी में बताने के लिए रखी गयी है मगर उसने संस्कृत के सभी शब्द सही उच्चारण से कहे। शाम का चार बज रहा था जब हमारी बस क्योटो के लिए चली। रास्ते में एक क्योटो शहर से कुछ दूर पर फूशिमि इनारी शिंटो मठ पर हम दस मिनट के लिए रुके क्योंकि यह बहुत प्रसिद्द जगह है और बहुत खूबसूरत भी। मगर पूरा देखने का समय नहीं था। अतः बस ने सबको उनके स्थान पर छोड़ दिया।
क्योटो में कहीं बैठकर पेटपूजा करने का मन है मगर कहाँ ? चाय तो हमने अपने कमरे में ही बनाकर पी ली. थोड़ा सुस्ता भी लिए। मगर भोजन ढूंढना पड़ेगा। तो हम चले। बाज़ार की रौनक देखते रहे। अंग्रेजी के जो भी नाम पट दीखते हम पढ़ लेते। मगर सब कुछ जापानी में। पतिदेव ने जेब में हाथ डाला कि वह डायरी निकालें जिसमें हमने जापानी भाषा में लिखवाया था कि हम शाकाहारी हैं। पर इसकी नौबत नहीं आई। मेरे सामने एक छोटा सा बिलबोर्ड एक किनारे रखा हुआ था जिसपर अंग्रेजी अक्षरों में लिखा था शंकर। कोई दूकान जैसी लगती थी। सोंचा पूछताछ यहीं से कर लें। अतः हम अंदर गए। दूकान वाले ने एक और दरवाज़ा दिखा दिया जो एक तरफ को खुलता था। हम उसी में झाँकने लगे तो ” आईये . अंदर आईये। ” सुना। ऐसा लगा जैसे आकाशवाणी हुई हो स्वयं प्रभु के द्वारा।
शंकर तो पूरा मस्त मौला शंकर ही निकला। खूब अच्छी टेबल हमारे लिए व्यवस्थित की। किसी की कुर्सी खाली थी तो कहीं दो मेजें संग जुडी थीं। उसने आनन् फानन में एक मेज़ और आमने सामने दो कुर्सियां सजा दीं । संकरा सा गलियारा पीछे तक भरा हुआ था। बहुत लोग खा रहे थे। हमारी मेज़ पर मोमबत्ती जल उठी। शंकर शाकाहारी सुनकर गरम गरम अरहर की तड़का दाल , भुने आलू ,बैगन की सब्जी और रोटियां ले आया। रोटियां और दाल खाकर जो तृप्ति उस दिन हुई उसका जवाब नहीं। बाद में उसने आइसक्रीम खिलाई जिसमे कुतरे हुए मेवे आदि पड़े थे ऊपर से। बेस्ट आइसक्रीम। प्रेम से खाना खिलाया और हिंदी में लगातार बोलता रहा। पंद्रह वर्ष पहले वह नेपाल से यहां पढ़ने आया था। मगर कौन गाँव वापिस जाता है जी। सो उसने भी यहीं नौकरी कर ली। चार पैसे कमाकर यह रेस्टोरेंट खोल लिया। अब वह शाह है। घर गृहस्थी ,गाड़ी मोटर बच्चे आदि सब हैं। दोनों प्राणी जी तोड़ मेहनत करते हैं। जापानी हिंदुस्तानी खाना बहुत पसंद करते हैं। मगर इस होटल में वह बीफ नहीं परोसता। उससे विदा लेकर हम फिर बाजार में फिरते रहे तभी पतिदेव ने याद किया कि कल सुबह १० बजे ” टाकायामा ” के लिए बुलेट ट्रैन लेनी है अतः घर चलकर सोने की करो।
मैं बेहद निराश हुई। क्योटो में एक विशाल बौद्ध मंदिर है जिसमे १००० कन्नन देवी की सोने की प्रतिमाएं हैं। इसको रेंजोइन संजुसंगेंदो कहते हैं। वह कैसे देखूँगी ? कोई बात नहीं जल्दी निकलेंगे और वह मंदिर देखते हुए जाएंगे। वही किया। ठीक आठ बजे हम मंदिर के द्वार पर टैक्सी लेकर पहुँच गए। मगर मंदिर पौने नौ बजे खुलता है। बड़ी निराशा हुई। मगर टैक्सी वाला जा चुका था। सब दरवाजे बंद पड़े थे। हम पसोपेश में थे कि क्या करें। एक व्यक्ति दिखाई पड़ा। उसे रोक कर हमने इल्तिजा की कि अगर वह हमारी कुछ मदद कर सकता हो तो। भाषा तो उसे नहीं समझ आई मगर इंग्लैंड ,१० ओ ‘क्लॉक और टाकायामा उसकी समझ में आ गया। वह हाथों से कुछ इशारे करता और मुंह से ओह आह आह आदि आवाज़ें निकालता, बिल्डिंग के पीछे जाने कहाँ गुम हो गया। हम विमूढ़ से खड़े रहे। जब तक ऑफिस न खुले हम टैक्सी भी नहीं बुला सकते थे।
” इतने मंदिर तो देख लिए थे। यह भी वैसा ही होगा। बेकार मुसीबत मोल ली।” डाँट मुझे पड़ रही थी। मैं मन ही मन मन्त्र बोल रही थी। बुद्ध ने भी मन्त्र शक्ति को मान्यता दी है। सुनवाई क्यों न होती।
ठीक साढ़े आठ बजे ऑफिस खुल गया। टिकट की खिड़की पर एक आदमी बैठा हमें देख रहा था। उसने अंग्रेजी में कहा कि हमारी खातिर उसने आधे घंटे पहले खोल दिया है अतः हम जल्दी से यदि देख लें तो सब सही रहेगा। अतः हमने झटपट अंदर पग रखा। सूर्य की किरणें कांच की विशाल खिड़कियों से अंदर मूर्तियों पर पड़ीं। ऐसा दृश्य पहले नहीं देखा। एक हज़ार प्रतिमाऐं देखने में एक जैसी लगाती हैं मगर सब बोधिसत्व के अलग अलग रूप हैं। इनके बीच में कन्नन देवी की विशाल प्रतिमा है जिसके अनेक हाथ हैं। यह जेन बौद्ध धर्म में मानवमात्र की रक्षिका देवी है। और चारों ओर से अपने विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमाओं से घिरी हुई है। सभी देवियों की बहुत सी भुजाएं हैं जो स्त्री के शक्ति स्वरूप को व्यक्त करती हैं। इन भुजाओं के कारण यह किरणों से उद्दीप्त नज़र आती हैं। यह सब कतारों में खड़ी हैं जैसे किसी थिएटर में सीढ़ियों वाली कतारें होती हैं। इनके आगे जापानी ,हिंदी और अंग्रेजी में नाम लिखे हैं। सबसे आगे की पंक्ति में इंद्रा ,वरुण , मरुत ,विष्णु आदि की अति विशाल अष्टधातु की मूर्तियां हैं। हम अभिभूत हो गए। अपने हिन्दू देवताओं का इतना सम्मान और श्रृंगार एक मानसिक चमत्कार लगा। कला की दृष्टि से यह हमारी मूर्तियों से भिन्न थीं मगर भाव का ,शक्ति का , प्रकृति की विशेषताओं का निरूपण अद्भुत था। सबके विशेष गुण उनके चेहरों पर झलकते थे। वायु को आप वरुण नहीं समझ सकते थे। नारा से भी अधिक ह्रदय को मथने वाला यह अनुभव था। निगमन द्वार के बाहर कमल ताल बना था जो जापान के मंदिरों का आवश्यक अंग है। बाकायदा कमल खिले हुए थे। अधिक रुकने का समय नहीं था। हमारे बाहर आते ही दो मिनट के बाद टैक्सी आ गयी। अवश्य यह टिकट बेचनेवाले ने बुलवा दी थी। हम मंदिर को प्रणाम करके क्योटो से भी विदा हो लिए।