कविता

बैरियों के बैर

बैरों से लदी बैरिया
झुक झुक जमी पर आ गईं
पर हैं जिनका इंतजार
वोह बचपन
लेकर हाथ में पत्थर अभी तक न आया
न जाने कहां खो गया है बचपन
जो मार कर पत्थर तोड़ता था मेरे बैर
और झपटता था मेरे टूटे हुए बैरों पर
छीन लेता था दोस्तों के हाथों से पके हुए बैर

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020