सामाजिक

अधिकार और जिम्मेदारी

चार और साढ़े चार शब्दों वाले ये शब्द कहने सुनने में भले ही सामान्य लगते हों परंतु इनके फलक अत्यंत विस्तृत हैं।साथ ही दोनों में बड़ा सामंजस्य है।
अधिकार होना, जताना, मानना और महसूस करना बहुत ही आसान है, परंतु अधिकारों के साथ जिम्मेदारी का भी अहसास होना आवश्यक है। सिर्फ़ अधिकार जताने या अधिकार की अपेक्षा रखना ही महत्व नहीं रखता जब तक उसी अधिकार के अनुरूप जिम्मेदारी का अहसास न हो।
सरल से उदाहरण से समझाने का.प्रयास करता हूं कि संतान का अपने माता पिता पर पूरा अधिकार होता है। प्यार, दुलार से लेकर धन संपत्ति तक पर। तो संतान की जिम्मेदारी भी समझे।जिस तरह माता पिता अपनी संतान को जन्म के साथ पाल पोसकर बड़ा करते हैं,अपने पैरों पर खड़ा करने का प्रयास करते, शादी, विवाह कर अपने दायित्व निभाते हैं,,उन्हीं के लिए दिन रात एक कर चल,अचल संपत्ति जुटाते हैं तो संतान की भी जिम्मेदारी है कि जब माता पिता जीवन की ढलान या जिंदगी की साँझ की ओर बढ़ रहे हों तो उनकी सेवा, उनकी जरुरतों और अपने पन की भी जिम्मेदारी निभाएं।
जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही होना श्रेयस्कर है। क्योंकि हम जिस पर भी अधिकार समझते हैं उसके प्रति हमारी कुछ जिम्मेदारियां भी हैं। ऐसा ही राष्ट्र या समाज के प्रति भी है। अधिकार और जिम्मेदारी एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का सामंजस्य न हो तो अधिकार और जिम्मेदारी जबरन बोझ सी लगेगी।जिसमें कोई भाव नहीं होगा । सिर्फ़ मजबूरियां होंंगी।जो हमें जोड़ नहीं सकतींं और महज औपचारिक बनकर जायेंगी अधिकार भी और अधिकार भी। जरूरत है अधिकार और जिम्मेदारी की गहराई को महसूस करने, समझने की तभी सब कुछ सहज और संतोषप्रद लगेगाः।

*सुधीर श्रीवास्तव

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