क्या मध्यप्रदेश में मिला है करोड़ों वर्ष प्राचीन हाथी का जीवाश्म ?
मध्यप्रदेश के सागर और छतरपुर जिलों की विभाजन रेखा के समीप नैनागिरि के जंगल में सेमरा पठार नदी में एक हाथी के आकार की बहुत प्राचीन चट्टान मिली है, इसे कुछ पुराविदों ने करोड़ों वर्ष प्राचीन माना है। इस चट्टान से सम्बंधित रोचक आख्यान है, कि भगवान पार्श्वनाथ का जीव पूर्व भव में इसी शाल्यकी वन में बज्रघोष नामक हाथी था। जो इस नदी के कीचड़ में फॅस कर मर गया था। उपरान्त देव बनकर वह पार्श्वनाथ तीर्थंकर हुआ। इस कथानक के बाकायदा आठवीं-नौवीं शताब्दी के पौराणिक उल्लेख हैं।
श्री सुरेश जैन आईएएस, भोपाल ने इसके संबंध में पर्याप्त साक्ष्य जुटाये हैं। देश के सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् डॉ. नारायण व्यास, भोपाल ने हाथी के जीवाश्म की इस चट्टान का अवलोकन कर निम्नांकित अभिमत प्रदान किया है कि-‘‘नैनागिरि पर्वत विंध्याचल पर्वतमाला के अंतर्गत स्थित है। प्रकृति स्वयं में एक कलाकार है। उसकी कला को पहचानने के लिए कला हृदय होना चाहिए। इसका एक बड़ा उदाहरण सागर के निकट जैन तीर्थ क्षेत्र नैनागिरि हैं, जहाँ प्रकृति की कला का एक अनूठा उदाहरण गजराज याने गजाकृति के आकार की जल के मध्य विशाल चट्टान है, जो जल और वायु के प्रभाव से बनी है। यह चट्टान करोड़ों वर्ष प्राचीन है। प्रकृति का अनुपम वरदान है। इस गजराज चट्टान को प्राचीनतम जैन धार्मिक स्थल माना गया है।‘‘
मध्यप्रदेश के सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता श्री अशोक कुमार जैन, भारत सरकार के वरिष्ठ इंजीनियर श्री सुरेन्द्र सिंघई एवं इंजी. श्री अजित जैन ने गजराज के इस जीवाश्म का अवलोकन कर अपना इस प्रकार अभिमत दिया है कि- ‘‘सेमरा पठार नदी की कलकल धारा के बीचों-बीच सतत प्रक्षालित बज्रघोष गजराज की प्राकृतिक रूप से निर्मित अद्वितीय है। नदी की धारा के बीचों-बीच दलदल में फँसे (सिर्फ गर्दन बाहर निकली) गजराज की जीवाश्म प्रतिकृति देखकर भगवान पार्श्वनाथ के द्वितीय भव के गजराज के रूप में जन्म लेने एवं शुद्ध जैन आहार-विचार पद्धति अपनाकर जीवन को परिवर्तित करने वाली जैन आगम की यह घटना 100 प्रतिशत पूरी तरह से सच प्रतीत होती है।’’
आठवीं- नौवीं के शती आचार्य गुणभद्र कृत संस्कृत उत्तरपुराण में उल्लेख आया है-
मलये कुब्जकाख्याने विपुले सल्लकीवने।
मरूभूतिरभून्मृत्वा बज्रघोषो द्विपाधिपः।।
उत्तरपुराण की इस कथा के अनुसार- एक दिन यह मदोन्मत्त विशाल हाथी तपस्यारत अरविन्द मुनिराज को मारने के लिए उद्यत हुआ। मुनिराज के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह देखते ही बज्रघोष को अपने पूर्वभव का स्मरण हो गया। गजराज बज्रघोष मैत्री-धर्म का पालन करते हुए चुपचाप खड़ा हो गया। उसने मुनिराज से श्रावक के व्रत गृहण कर लिए। बज्रघोष ने वृक्षों की सूखी शाखाओं और पत्तों का भोजन शुरू कर दिया। चिरकाल तक शांतिपूर्वक विचरण और तपश्चरण करते हुए एक दिन बज्रघोष सेमरा पठार नदी में पानी पी रहा था। पूर्व बैरी कमठ के जीव कुक्कुट सर्प के काटने से धर्मध्यान पूर्वक शांति भाव से उसने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। बज्रघोष ने सहस्रार स्वर्ग में स्वयंप्रभ देव के रूप में जन्म लेकर तीर्थंकर पद की अपनी यात्रा चालू रखी और आत्मोन्नति करते-करते तीर्थंकर पार्श्वनाथ का परमोच्च पद प्राप्त कर लिया।
ज्ञातव्य है कि विक्रम की पहली शताब्दी के प्राकृत ग्रन्थ के उल्लेखानुसार रेशंदीगिरि-नैनागिरि में तीर्थंकर पार्श्वनाथ का समवशरण-उपदेशसभा लगी थी। उत्खनन में यहाँ तीर्थंकर पार्श्वनाथ की अनेकों प्राचीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। यह भी कहा जाता है कि यहाँ के जगलों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने पतस्या की और यहाँ बहुतायत में पाये जाने वाले धवा के वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान हुआ।
— डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’