वीर शिरोमणि महाराव शेखाजी
शेखावाटी के संस्थापक वीर शिरोमणि महाराव शेखाजी मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास के विशिष्ट अध्याय हैं।उन्होंने अपने पुरुषार्थ बल के दम पर 360 गाँवों पर अधिकार कर शेखावाटी साम्राज्य की नींव डाली।शेखाजी के पश्चात उनकी पीढ़ियों ने त्याग और बलिदान के द्वारा शेखावत वँश की ख्याति को सर्वत्र प्रसारित किया।नारी मान मर्यादा के रक्षक और साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक महाराव शेखाजी का नाम इतिहास में अग्रणी रहा है।
प्रारंभिक जीवन और राज्यारोहण – शेखावतों के आदिपुरखा शेखाजी का जन्म नाण के शासक राव मोकल कछवाहा की निर्वान राणी से विजयदशमी वि.स.1490 (1433 ईस्वी)को हुआ । 1445 ईस्वी में राव मोकल के देहांत के बाद उनके एकमात्र पुत्र शेखा उत्तराधिकारी बने। उस समय शेखाजी की आयु मात्र 12 साल थी। अतः इनके काका खींवराज शेखाजी के संरक्षक हुए। 16 साल की अवस्था होने पर वे समर्थ होकर अपने राज्य का पद भार संभालते है। युवा शेखाजी ने साम्राज्य विस्तार के लिए आस पास के क्षेत्रो पर दिग्विजय अभियान चलाया। जल्द ही शेखा जी सांखलो ,टांकों,यादव आदि राजपूत राज्यों पर अधिकार कर लेते हैं। वि.स.1517 में राव शेखाजी ने अपनी धाय माँ अमरा के नाम पर अमरसर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनायीं।
पन्नी पठानों का आगमन- गुजरात के सुल्तान महमूद से नाराज होकर पन्नी पठान शेखावाटी प्रदेश में प्रवेश करते है। शेखाजी ने उन पठानों को अपनी सेना में स्थान दिया और भाई बनाकर उनको कई जागीरे प्रदान की।उन विस्थापित पठानों को अपने राज्य में संरक्षण देकर राव शेखाजी ने साम्प्रदायिक एकता का परिचय दिया।उन्होंने अपने राज ध्वज में पठानों के प्रतीक चिन्ह को भी सम्मिलित किया ।इन्हीं पन्नी पठानों के बल से ही शेखाजी ने शत्रुओ को धराशाही करके अपने राज्य का विस्तार किया था ।
आमेर से युद्ध – शेखाजी के दादोसा राव बालाजी को आमेर के शासक राव उदयकर्ण कछवाहा द्वारा बरवाड़ा की जागीर मिली थी। जागीर के बदले बालाजी और मोकलजी अधीनता स्वरूप कर के रूप में प्रतिवर्ष आमेर को बछेरे या घोड़े देते थे। यह परम्परा शेखा जी तक चली आ रही थी। शेखा ने इस परम्परा की श्रंखला को तोडना चाहा।जल्द ही शेखाजी ने इस कर को देना बंद कर दिया । इससे आमेर के तत्कालीन शासक राव चंद्रसेन क्रोधित हो गए। इसके परिणामस्वरूप चंद्रसेन जी और शेखा जी के बीच युद्ध छिड़ गया। महाराव शेखा जी ने आमेर को कई बार युद्ध में हराया। अंत में आमेर ने शेखा जी से संधि कर इस वैर भाव को समाप्त किया।
बागड़ी पर अधिकार – वि.स.1530 में मुगलो ने दूदाजी सी मेड़ता छिन लिया। शेखा जी ने दूदाजी को अपने यहाँ शरण दी।
आमेर रियासत ने शेखाजी के साथ गायसुदीन के सेनापति को भंडारेज के युद में करारी शिकस्त दी। विक्रमपुर का सोड़ कछावा बागड़ी के अल्फ खा के किले के सामने से घोड़े पर सवार होकर जा रहा था। सुल्तान को अभिवादन नहीं करने से अल्फ खाँ चिढ़ गया तथा उसका अपमान किया। सोड़ जी फिर राव शेखा के पास जाकर अल्फ खाँ की शिकायत करता है। महाराव शेखाजी सोडजी को न्याय दिलाने के बागड़ी पर आक्रमण कर देते है।अंत के युद्ध मे शेखाजी ने अल्फ खाँ को मारकर सोड जी के अपमान का बदला लिया। इस समय तक शेखाजी ने लगभग 360 गाँवो पर अधिकार कर चुके थे। उन्होंने शिखरगढ़ दुर्ग का निर्माण भी कराया था।
गौड़ राजपूतों से युद्ध – झूथरी के गौड़ शासक कोलराव ने एक तालाब खुदवाना शुरू करवाया। जो भी इस मार्ग से गुजरता था तो उसे तालाब निर्माण की खुदाई के लिए चार चार मिट्टी की टोकरी को खोदना आवश्यक था। एक बार एक कछवाहा राजपूत ससुराल से अपनी पत्नी सहित आ रहा था। उनको भी इस कार्य हेतु विवश किया गया। यह कार्य उसकी मर्यादा के विरुद्ध था फिर भी उसने अपनी और अपनी पत्नी के हिस्से की टोकरियां डाल दी। पर गौड़ सरदारों ने राजपूतानी से भी जबरदस्ती मिट्टी की टोकरी डलवाना चाहा, अपनी पत्नी के अपमान को देखकर वह नवयुवक गौड़ सैनिकों से भिड़ जाता हैं,अंत में वह कछवाहा युवक वहाँ रणखेत रहता हैं। उसकी पत्नी ने उसका वहाँ दाहकर्म किया तथा मुठी भर मिटटी अपनी आँचल में भरकर वह नारी न्याय के लिए शेखाजी के पास आ गई। क्षत्राणी ने अपनी व्यथा सुनाकर आँचल की मिटटी शेखाजी के सामने बिखेर दी। नारी की दयनीय स्थिति देखकर शेखाजी का क्षात्र धर्म जाग उठा और नारी की मान मर्यादा की रक्षा के लिए झुँथरी गोड़ राजपूतो पर हमला कर दिया। शेखाजी ने उद्दंडी शासक कोलराज का सर काटकर क्षत्राणी के समक्ष प्रस्तुत करके अपना क्षात्र धर्म निभाया। फिर शेखाजी ने कोलराज का शीश अमरसर के चौराहे पर लटका दिया,ताकि कोई भी दुष्कर्मी नारी जाति के अपमान करने से सौ बार सोचें।कोलराज के कटे शीश को देखके गोड़ो ने इसे अपना अपमान समझा और शेखाजी से बदला लेना का निश्चय किया। इसके बाद गोड़ो ने शेखाजी से 10 बार युद्धभूमि में मुँह की खायी। 11 वीं बार गौड़ राजपूतों के पाटवी ठिकाने मारोठ के राव मूलराज (रिड़मल) गोड़ ने घाटवा मे वि.स.1545 में शेखाजी से अंतिम युद्ध का आह्वान कर शेखावतों को युद्ध निमंत्रण पत्र भेजा-
गौड़ बुलावे घाटवा,चढ़ आवो शेखा।
थारां लस्कर मारणा,देखण अभलेखा।।
इस युद्ध में गौड राजपूतो ने पूरी शक्ति से शेखाजी पर धावा बोला। युद्ध में शेखाजी के दो पुत्र पूरणमल और दुर्गा वीरगति को प्राप्त हुए। शेखाजी ने युद्ध में अदभुत रणकौशल दिखाया जिससे गौड़ युद्धभूमि से भाग खड़े हुए। 17 घाव लगने से घायल शेखाजी ने अक्षय तृतीया के दिन 1488 ईस्वी में रलावता में देह त्याग दिया। आज भी उनकी स्मृति रूप वहाँ छतरी बनीं हुई है जो उनकी महागाथा याद दिलाती है। उनके बाद शेखाजी के छोटे पुत्र राव रायमल अमरसर के शासक बने। महाराव शेखा एक आदर्श क्षत्रिय नरेश थे। उन्होंने अपन जीवन में लगभग 51 युद्ध लड़े थे । वे कुशल सेनानायक ,कूटनीतिक और स्थापत्य कला के प्रेमी थे ।
- मनु प्रताप सिंह चींचडौली,खेतड़ी